गहराने लगी है नीरवता
उदासी भी जमने लगी है
मौन, एकांत, अकेलापन
ये शब्द पर्यायवाची हैं या भिन्न
मन को अंतर स्पष्ट करने की
न व्यग्रता शेष न जिज्ञासा
अर्थ का अनर्थ, अंत का होना अनन्त
अब उद्वेलित नहीं करता
प्रकृति के प्रहरी आंदोलित करने में
असक्षम हो चले हैं या मैं ही
अनुभूतियों में कहीं जर्जर हो चली
नहीं जानती, मानती भी नहीं कि
जीवन में अब शेष नहीं कुछ
बस गहराती रात्रि है और वही नीरवता
सजीव, निर्जीव का अंतर भूल
हठीली हो चली हूं
मौन से मौन तक
अपलक अनथक मंथर गति से
अंत को ताकती… अनुपमा सरकार
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