नींव बहुत गहरी थी
बरसों के आंसुओं से
धीरे धीरे भरी थी
दीवारें बहुत ऊंची थीं
सदियों के रिवाज़ों से
धीमे धीमे उभरी थीं
खिड़कियां जंग खाईं थीं
बाहर की तरफ
अब नहीं खुलती थीं
न आने का ज़रिया
न जाने का रास्ता
बस साँसें लेता था वो
बेड़ियों में नहीं
बुलबुलों में जकड़ा था
शायद अपनी क़ैद का
उसे पता भी न था
पर जाने कैसे हवा का
इक मतवाला झोंका
खिलखिलाता गुनगुनाता
दरारों को अपनी दास्तां सुनाता
हौले से उस को छू गया
सूख गए आंसू सारे
रीतियाँ चरमरायीं
बरसों पुरानी चाहत ने
फिर पंख फड़फड़ाये
और मन आज़ाद हुआ
बस चिटखनी ही तो खोलनी थी !!
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