गज़ब का मूर्तिकार था राघव। छैनी की सधी ठकठक और हथौड़े की हल्की चोट से निर्जीव पाषाण में कुछ यूं जान फूंकता कि मूर्ति बरबस मुंह से बोल पड़ती। जीवंत हो उठतीं वे मूक प्रतिमाएं जो कभी केवल मील का पत्थर हुआ करती थीं। लोग कहते थे कोई जादूगर था। मूर्तियां नहीं इंसान गढ़ता था।
पर धीरे-धीरे राघव का मन उन संगमरमर की शिलाओं से ऊबने लगा। उसकी विलक्षण कला चरम सीमा पर थी। एक नई राह, एक नया शौक ही उसकी कल्पना की उड़ान को कायम रख पाता। तलाशने लगा, कुछ ऐसा जिसे कुम्हार की तरह, चाहे जिस आकार में ढाल पाए। बालू सा नरम, अनगढ़! बस हाथों की छुअन भर से जादू में बदल जाए।
बालू, हां, गीली बालू, समुद्र से भीगी रेत, उसकी ही तो तलाश थी उसे!
बैठ गया सागर किनारे, कड़ी धूप में झुलसता, अपने सपनों को साकार करने लगा। खूबसूरती से उकेरने लगा उसका सौंदर्य, ऊंचा माथा, नुकीली नाक, भरे होंठ, छरहरी सी गरदन, उभरता यौवन। दक्ष था राघव। हाथों में ईश्वर का वरदान लिए। लाजवाब कलाकृति को जन्म दिया, उसकी इस महत्वकांक्षा ने। ऐसी सजीव मानो किसी भी पल मुस्कुरा उठे।
राघव के अधरों पर भी खेलने लगी थी अब एक जीवंत मुस्कान। उसकी मेहनत सफल हुई थी। रेत की वो मूरत जीवित हो रही थी पल-पल। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि काश ये मुझसे बात कर पाती। इसे आलिंगन में भर प्रेम का अहसास कर पाता। पर, चिरस्थायी मूक मन कभी बोल पाया क्या, जो आज कह पाता। जादुई शब्दों की गूंज भरना तो भूल ही गया था उस मूरत में। जवाब आता भी तो क्या।
राघव का कला मन बगावत पर उतर आया। अपनी ही रचना को मिटाने की कोशिश करने लगा। सहायकों के हाथ में दे डाले छैनियां, हथौड़े। उसे खत्म करने का आदेश दे खुद दूर चला गया।
पर सबसे छोटी ईकाई को तोड़ना कब आसान हुआ है भला। बालू का अस्तित्व था ही क्या, जो खो जाता। रेत से बनी थी, रेत में ही मिल गई।
पर, नहीं, कुछ तो गुज़रा था उन हाथों से उस मन में। काश वो देख पाता,रेतीले कण चमकने लगे थे, ओस की बूंदों से भीग गए हों जैसे! जाने क्यों वो सागर भी अब और खारा हो उठा था!!
Anupama
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