रातरानी की कलियों और गुलाब की पंखुरियों के बीचोंबीच, चहलकदमी करते, मेरी मुलाक़ात अक्सर खुद से हो जाती है.. वो मैं, जो दिन भर फाइलों के ढेर, कागज़ के टुकड़ों, कंप्यूटर स्क्रीन पर दौड़ते भागते शब्दों के पीछे, कहीं छुपी रहती हूँ.. दम लेने को उठती हूँ, सहकर्मियों से बतियाती हूँ, उलजुलूल बातों पर बहस करती हूँ, ठहाकों की गूँज में अपने चुप्पे मन को उलझाये रखती हूँ…
पर देर शाम, छोटे से आंगन के सख़्त फर्श पर, क़दम दर क़दम, मन की कोमल गांठें खुलने लगतीं हैं… नज़र अक्सर आसमान में उलझी रहती है.. दिल्ली की सर्दियों में चाँद डूबा नहीं करता… 6 बजते बजते वो शीतल सजीला, निर्विकार भाव से मुझे तकता नज़र आता है.. बाहें फैलाकर प्रेम के अनन्त सागर में डूबने की इच्छा हो आती है.. एकाएक खुद को प्रकृति का हिस्सा महसूसने लगती हूँ.. अँधेरे में उड़ते चमगादड़ भी प्यारे लगते हैं.. आसपास फैली खुशबू नथुनों में भरती हूँ.. झुरझुरी सी होती है मानो किसी ने आत्मीयता से छू लिया हो..
दिन भर की थकन, चिढ़, खुशी, परेशानी सांस दर सांस बाहर आने लगती है… कभी खुद पर गुस्सा आता है तो कभी प्यार.. और कभी अपनों पर गुस्सा और फिर ढेर सारा प्यार.. परत दर परत खुलते सवाल, जवाब बन जाते हैं… किसी पल में अचानक सारी परेशानियां गायब हो जातीं हैं.. सुकूँ की मखमली चादर ज़ख्म ढाँप जाती है.. और किसी पल पुराने नासूर, न चाहते हुए भी, फिर उभर आते हैं…
मन की बातें मन ही जाने, कहकर झट खुद से नज़रें चुरा लेती हूँ.. कभी कभी लगता है कि जितना मैं चुप रहकर बोलती हूँ, शायद उतना तो कभी कहकर भी नहीं बोल पाती.. रिकॉर्ड कर लेना चाहती हूँ, वो सब बातें जो कहीं गहरे, बहुत गहरे उपजती हैं, चक्रवात सी उलझती हैं और हवा के बवंडर सी खो जाती हैं..
पर फिर लगता है, नहीं, जो बातें शब्दों में नहीं ढल पा रहीं, वे कच्ची हैं अभी… उन भावनाओं की संभावनाएं बाकी हैं… मेरी खुद से मुलाक़ात अभी बाकी है….
Anupama
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