“मुझे अजीब सपने आते हैं, यकीनन मेरा अंत समय नज़दीक आ गया है, मैं कल बनारस चला जाऊँगा, मोक्ष तो वहीं मिलेगा”
ये कहकर, रिटायर्ड टीचर/लेखक/कवि दया कुमार (ललित बहल), अपने जन्मदिन पर केक काट कर और गौ दान करके, मुक्ति भवन जाने की ज़िद पकड़ लेते हैं… बेटे राजीव (आदिल हुसैन) पर भावनात्मक दबाव बनाते और उसे कामकाज में व्यस्त रहने का ताना देते ये बुज़ुर्ग, निस्संदेह बहुत अपने से लगे.. एक छोटे से बच्चे की तरह, अपनी सोची हुई बात पर अमल करने को तैयार.. बस फर्क इतना कि यहां ज़िद किसी खिलौने की नहीं, बल्कि मृत्यु को गले लगानेे की है…
कुछ यूं शुरुआत होती है शुभाशीष भुटियानी की चर्चित फिल्म, “मुक्ति भवन” की.. देखा जाए तो नाम और शुरुआती सीन, ये यकीन दिलाते हैं कि इस मूवी में मृत्यु मेन थीम रहेगा, एक ऐसा शब्द, जिसे सुनकर हम में से ज़्यादातर लोग घबरा जाते हैं.. या कम से कम मौत के बारे में सोचने या बात करने को नेगेटिव तो मानते ही हैं..
पर, अक्सर जो दूर से जैसा दिखता है, वैसा होता नहीं.. जितना फुसफुसा कर हम मौत के बारे में बात करते हैं, लगभग उतनी ही तेज़ आवाज़ में ये फिल्म, मृत्यु को लेकर हमारे भ्रम और भ्रांतियों पर एक कड़ी चोट करती है.. और वहीं दूसरी ओर इंसान के अन्तर्द्वन्द को भी उजागर करती है.. हम अक्सर ज़िंदगी से क्या चाहते हैं, ये खुद ही समझ नहीं पाते और दोष परिस्थितियों या समाज पर मढ़ते रहते हैं.. दया, राजीव और विमला के ज़रिए मुक्ति भवन में इन्हीं संदेहों पर करारा प्रहार किया गया है…
दया कुमार, पूरी तैयारी के साथ, बनारस में अपनी अंतिम यात्रा की बुकिंग करते हैं.. ऊपरी तौर पर वे यह मान चुके हैं कि वो जल्द मरने वाले हैं, पर ज़रा सा उनका अंतर्मन कुरेदें तो समझ में आने लगता है कि वे केवल अपनी ज़िंदगी से ऊब चुके हैं… कोई बदलाव न मिलता देख, अपने बेटे से नाराज़गी को परोक्ष रूप से ज़ाहिर करते पिता, गौ दान करके, आखिरी सांस का इंतज़ार करने की बजाय, दरअसल, केवल एक ब्रेक चाहते हैं.. और परिवर्तन की ये लहर आश्चर्यजनक रूप से, उन्हें मौत के साए में जीते लोगों के बीच में सहसा मिल जाती है
दया को साथ मिलता है, विमला नाम की विधवा स्त्री का, जो पिछले 18 सालों से, अपने पति के गुज़र जाने के बाद से ही मुक्ति भवन में अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं, पर मौत है कि आती ही नहीं 🙂 दोनों बुज़ुर्ग बेहद उन्मुक्तता से एक दूसरे की दोस्ती स्वीकार करते हैं और लगभग 15 दिन के भीतर ही अपने जीवन का अंतिम सुख प्राप्त कर लेते हैं.. विमला को मृत्यु नहीं, जीवनसाथी की ज़रूरत रही, पर वे इसे समझ न पाईं.. दया को अपने बेटे से खुलकर बात करने की ज़रूरत रही पर वे भी ये समझ न पाए.. और सबसे बढ़कर दोनों को ही, उम्र के आखिरी पड़ाव में अंतरंग मित्र की दरकार थी, जो समाज के नियमों के चलते असंभव था..
पर जब मौत मुंह बाए खड़ी हो, झूठमूठ के लौकिक नियम और मर्यादाएं अपना असर दिखाना बन्द कर देती हैं, ये बात मुक्ति भवन में बहुत ही संवेदनशील ढंग से प्रदर्शित की गई..
यहां स्पष्ट करना चाहूँगी कि ये सब बातें खोलकर मूवी में नहीं दिखाई गईं.. बल्कि कहानी कुछ इस कदर गढ़ी गई है कि स्क्रीन से ज़्यादा आपके दिमाग में ख्याल उमड़ें… और आप अपने जीवन यात्रा के अनुभव के आधार पर बातों की तह में जा सकें..
अक्सर हम जीना सीख ही नहीं पाते.. सिर्फ मौत को इग्नोर करते हुए, किसी तरह ज़िंदगी को ढोते रहते हैं.. आदिल हुसैन (बेटा राजीव) इसी रोल को निभाते नज़र आते हैं.. कामकाज में डूबा थका हारा मिडल क्लास आदमी, जो बेटे, पति और पिता की जिम्मेदारियां निभाते हुए, अंदर ही अंदर घुट रहा है.. ये 15 दिन का ब्रेक सिर्फ दया कुमार को ही नहीं बल्कि राजीव और हम सबको भी चाहिए.. ताकि एक बार रूटीन से हटकर, ज़िंदगी को महसूस कर पाएं.. उसके बाद, मौत आए या न आए, हम जीना तो सीख ही जायेंगें..
बहरहाल मुक्ति भवन गागर में सागर भरती है.. डायलॉग्स या अभिनय बहुत प्रभावी नहीं, पर फिर भी कहानी गहराई तक छूने में समर्थ है.. पलोमी घोष पोती की भूमिका में, हंसते खेलते हुए एक नई सुबह का अहसास कराती हैं और अपने दादा और पिता के बीच की ज़रूरी कड़ी की भूमिका बखूबी निभाती हैं.. कुल मिलाकर फिल्म अर्थपूर्ण है, कम ही फिल्मकार इस तरह की कहानियों को इतनी एक्सपर्टली हैंडल कर पाते हैं.. मृत्यु के आवरण में जीने के गुर सीखाने का शुभाशीष का प्रयास काफी हद तक सफल रहा.
Anupama Sarkar
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