Hindi Poetry

क्षणिक 1

बन्द आँखों से ईश्वर
ढूंढती रही उम्र भर
नज़रें मिलीं
और वो दिख गया

वक़्त की पाबन्द हो चली हूँ
तुझसे दूर बीते
हर लम्हे का हिसाब रखती हूँ

108 मनकों की माला फेर, दुनिया जोगी कहलाये
अनगिन साँसों में जप, उसका नाम, ‘वो’ बावरी हुई जाये

जागते हुए ख़्वाब देखती हूँ
पलकें झपकाते ही वो बेधड़क चला आता है
एहसासों की आवाजाही आँखों की मोहताज कहाँ !

चल न हमराही वक़्त के घोड़े को उल्टा दौड़ाते हैं
बचपन की मासूम गलियों में फिर से लौट जाते हैँ

गुड़हल सी है सुबह
चटख रंगों में सपने सजा लेती हूँ
चूमती हूँ हौले से
इस मिठास को अपना बना लेती हूँ

उनींदी अंखियों से ढुलकते सीप के मोती
दिल चाहे समेट लूँ पर हथेली है छोटी !

शब्द खिलौने गज़ब के
गिरकर भी नहीं चटखें

भट्टी सा तपे तन, शीशे सा पिघले मन
का से कहूँ पीर घनेरी, नैनन छलकत नीर री

संभाली है दुनिया हमने
ये गुमान नशे से कम कहाँ

बाँहों में समेट लेती हूँ
मेरी परिधि नहीं
विस्तार हो तुम

दिल बुदबुदाया इश्क़
दिमाग की धड़कनें थम सी गईं

ध्रुव जो चमका उत्तर में
मेरे हर सवाल का जवाब बन गया

आँखों के रास्ते
दिल में उतर गया
घाव गहरा बहुत था
Anupama

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