Hindi Poetry

मेट्रो

बिजली की रफ्तार से भागती मेट्रो में
बैठी थी मैं चुपचाप
भीड़ का हिस्सा फिर भी अकेली
कुछ कुछ उदास।

नज़र घुमाइ मैंने इक बार
जानने को औरों का हाल
हर चेहरे पर पाई वही शून्यता
खालीपन का अहसास।

यूं तो हर पल सूकुन ढूंढते हैं हम
तथाकथित भोगी दास
पर खुद की संगत से ऊब
सोचने लगते हैं कुछ आम कुछ खास।

ढेरों विचार घेर लेते हैं हमें
पुरानी यादें कुछ नये वादे
याद आते हैं भूले बिसरे किस्से
जो थे कभी जीवन के हिस्से।

हर याद एक अलग भावना
नया अलख जगाती है
मानस पटल पर जाने कितने
चलचित्र बनाती है।

पर मन की गति कितनी तेज़ है
इसका यूं अहसास हुआ
कितनी ऊंची उड़ान है इसकी
यकायक अंदाज़ हुआ।

जब मैंने अपनी साथ की सीट
पर छोटा सा बालक देखा।
एकटक मुझे निहारता
जैसे हो अपलक विचारता।

वो मुझे देख मंद मंद
मुस्कुरा रहा था।
मानो मेरी भावभंगिमा से मनस्थिति
का पता लगा रहा था।

ये कुछ देर पहले तो यहां न था
या मेरा ध्यान ही बिखरा था
कहीं दूर किसी पशोपेश में
जा उलझा था।

देखकर भी अनदेखा करने की
शायद हमें आदत सी हो गई
अन्याय सहने की
चुप रहने की लत सी लग गई।

और अब तो बेरूखी का
ये आलम है
बिना वजह दुआ सलाम भी
मानो इक अहसान है।

उस छोटे बच्चे को देख मुझे भी
कुछ अविश्वास हुआ
पर भोली मुस्कान से
जल्द ही मन भयमुक्त हुआ।

निर्मोही के मूक स्वरों ने
वर्तमान को झिंझोड़ दिया।
सरपट भागी भूत की चिंता
भविष्य भी अंतर्धयान हुआ।

लौट आई इस पल में
जीने का अहसास हुआ।
अपने खुद के होने पर इक
नया विश्वास हुआ।

जीवंत लगने लगे सब नज़ारे
सरपट भागते पेड़
ईंट पत्थर के गलियारे
उन्मुक्त गगन के परिंदे सारे।

काश हर पल यूं ही खुलके जीती
पंछियों की तरह उड़ती
चहकती किलकिलाती
खुद में मस्त इक अल्हड़ पवन हो जाती।

पर मैं तो बिजली की रफ्तार से
भागती मेट्रो में बैठी थी चुपचाप
भीड़ का हिस्सा फिर भी अकेली
कुछ कुछ उदास।

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