ईंट गारे से बने मकान भाते हैं मुझे
नन्ही इकाईयां एक हो जाएँ तो
कितनी मज़बूत है ज़िन्दगी
हौले से बताते हैं मुझे
पर आज की सुबह कुछ अलग है
मार्बल कटने की तीखी आवाज़
कानों में पिघला शीशा घोल रही है
ड्रिलिंग मशीन कर्कश स्वर में
जाने कौन से व्यंजन मन भर तोल रही है
उफ्फ़ ! ये सटे से मकान
ये ऊंची इमारतें
ये लोहे के जंगले
ये भिंचे से छज्जे
इस महानगरीय शोर से दिल उकता गया
मुझे सालों पुराना इक सफर याद आ गया
सरसों के लहलहाते खेतों की मुंडेर पर
उगे टेढ़े मेढ़े पेड़ों की ऊंची डालियों पर
मोरनी का लगभग चींखते हुए जाना
नवजात शिशुओं का खुलकर चहचहाना
और झीने कोहरे की चादर का मेरे होंठों को छू जाना
उन चरमराती पत्तियों पर निस्संकोच मेरा बढ़ते जाना
जंगली फूलों की पंक्तियों में गुलाब की छटा देख मेरा
आत्म मुग्ध हो जाना
न वाहनों का शोर
न भीड़ की चांय चांय
बस मीलों फैला आसमां, भीना सा धुआँ और मैं
कुछ महानगरीय कोने कितने सुकून भरे होते हैं न
दिल को बिन आंच पिघला जाते हैं
और सालों बाद भी स्वप्न सरीखे
खुली आँखों में तैर जाते हैं !
Anupama
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