Fursat ke Pal

मैरी-गो राऊंड

एक बिंदु पर तटस्थ है जीवन। धुरी पर हौले-हौले घूम रही हूँ। दुनिया से बेखबर खुद को एक आवरण में समेटे, निश्चिंत भाव से किस्मत पर यकीन करते हुए। जो भाग्य में है, मुझसे छिन नहीं सकता, जो नहीं है, कोई दे नहीं सकता, इसी फिलोसफी को आधार बना, खुशी को होंठों पर सजा, नगमे गाते। आसान होता है, खुद को पत्थर सा कठोर बनाकर जीना। अंदर की नरमाहट खुद को सुरक्षित समझती है। खोने का, चटखने का डर नहीं होता। पर क्या हो गर समझ जाऊं कि ये आंखों का धोखा है, किसी स्वप्न में जी रही हूँ। नींद खुलते ही खुद को ज़मीन से बीस फुट ऊंची हवा में पाती हूँ। धरातल के नाम पर केवल मैरी-गो-राऊंड सरीखी, पुरानी सी सीट है, जिस पर लगे डंडे को कसकर पकड़ रखा है मैंने, डरती हूँ छोडा तो गिर न पडूं।

पर ये डर भी अजीब है, कौतूहल भरा। रह-रह कर गर्दन घुमा कर देखती हूँ। कभी दाएं कभी बाएं, कुछ ढूंढती हूँ, कुछ अपना सा, कुछ अनजाना सा। कभी खिलखिलाती हूँ, उस बंदर पर जो अनमना सा पेड़ की डाली पर लटकता मुझे घूरता है। शायद परेशान है अपनी आजादी से, किसी डोर में बंधना चाहता है। पगला, मुझसे सीट बदलना चाहता है।

अचानक नजर टकराती है पेड़ों की चोटियों पर बैठी चीलों से, खीझ उठती हूँ उनकी हिम्मत से, मुझे ठेंगा दिखा,अक्सर बादलों के पार चली जाती हैं। काश, मैं उनसे सीट बदल पाती।

तभी दिखते हो तुम, मेरे बिल्कुल करीब, शांत भाव से मुस्कुराते हुए। कुछ मुझसे, कुछ हटके। अब मैं सीट बदलना नहीं चाहती। ये नजर टिकाए रखना चाहती हूँ, उस बिंदु पर, जहां तुम केंद्रित हो। भुलावा होने लगता है मेरी और तुम्हारी धुरी शायद एक ही है, समान गति से हम साथ-साथ चल रहे हैं। आसपास के नजारे धुंधले होने लगे हैं। फिजा में अलग ही रंग बिखर चले, धूल खुशनुमा गुलाल बन उडने लगी, सूखी पत्तियां झरझर की मधुर ध्वनि से गुंजित हो उठीं। समां बंधने लगा, जैसे भटकते हुए बंजारे को स्थायी पता मिल गया हो।

पर तंद्रा फिर भंग हो जाती है। मैरी-गो राऊंड में ही हूँ अब भी। पर ये ठहराव पल भर के भ्रम से ज्यादा नहीं। दूरियां बढने लगीं। ब्रम्हांड की गहराई से भी गहरा अंधेरा छाने लगा और समझ में आया तुम भी मैरी-गो-राऊंड में ही हो। मुझसे थोडी दूर, अपनी धुरी पर चक्कर लगाते। जब तक ऐस्केप-वेलोसिटी पार न हो, इन भंवरों से छुटकारा संभव नहीं।
Anupama
#fursatkepal

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