Review

Mausam Movie (1975)

वादा, छोटा सा शब्द, पलक झपकाते ज़ुबां से फिसल जाता है, पर न निभाने का ख़ामियाज़ा कितना संगीन हो सकता है, शायद ही कभी किसी ने सोचा हो.. शायद इसलिए, क्योंकि वादा खिलाफी का असर अक्सर सालों बाद जो दिखता है, वो भी परोक्ष रूप से…

कुछ ऐसे ही भूले बिसरे वादों के तार जोड़ती है “मौसम”, एक फिल्म जो 1975 में रुपहले परदे पर अाई, और आज चार दशक बाद भी उतना ही दखल रखती है..

शर्मिला टैगोर का डबल रोल, संजीव कुमार का परिपक्व अभिनय, सुघड़ कहानी, लुभाते डायलॉग्स और मनभावन संगीत… कोई कैसे इंकार करे कि क्लासिक हो तो ऐसी.. गुलज़ार की सबसे मशहूर और सशक्त मूवी है मौसम… हालांकि कहानी उनकी अपनी नहीं, कमलेश्वर के उपन्यास “आगामी अतीत” पर आधारित है..

आज सुबह शुरुआत की थी गुलज़ार की “रावी पार” से, आधी किताब खत्म होते होते मेरे फोन की बैटरी जवाब दे बैठी और में वो ईबुक बीच में ही छोड़कर खोजने लगी, गुलज़ार की कोई बढ़िया सी फिल्म.. यूट्यूब पर मौसम से नज़रें मिलीं और सालों पुरानी, गाली देती शर्मिला टैगोर की इमेज दिमाग में घूम गई… कुछ दृश्य मन में किस कदर छपे हैं, अमूमन आपको इस बात का पता deja vu के ऐसे पलों में ही चलता है..

आप सबने शायद मौसम देखी होगी, पर मेरे बचपन की ये बस हल्की सी याद है.. ये इकलौता सीन कभी दूरदर्शन के ज़माने से ज़हन में बसा हुआ… फिल्म के बारे में इस से ज़्यादा कुछ याद नहीं था.. शायद शर्मिला की वो इमेज ही थी जिसने आज भी बरबस, मुझसे मौसम का टकराव करवा दिया…

पर, नंबरिंग शुरू होते होते, “फिर ढूंढ़ता है दिल वही फुर्सत के दिन” मुझे हैरान कर गया, ये गीत तो बहुत गुनगुनाती हूं, क्या अब तक बिन जाने ही.. खैर हूं तो मैं ऐसी ही, खुद में खोयी, जग से अनजान…

फिल्म शुरू हुई… अमरनाथ गिल, नामी गिरामी डॉक्टर और ड्रग मैन्युफैक्चरर, दार्जिलिंग आए हैं, एक लंबी छुट्टी बिताने.. पर उनकी पहली ही सुबह, जब वे चहलकदमी करते, चाय की चुस्कियों संग, आसपास के इलाके में एक लड़की की मालूमात करते दिखे तो समझ में आया कि वे यहां 25 बरस बाद, किसी की तलाश में आए हैं, कोई अधूरा वादा निभाने, किसी कहानी के सिरे जोड़ने…

गज़ब लगी ये बात.. धीमे धीमे फ्लैशबैक में शर्मिला और संजीव की ईज़ी केमिस्ट्री, थापा वैद्य की दोहे मिश्रित सहजता, मज़ेदार डायलॉग्स और मधुर गीतों के बीच मैं खो सी गई… डॉ अमरनाथ के साथ चंदा और कजरी को खोजती मेरी निगाहें और धक धक करता दिल, उनकी तलाश जल्द पूरी होने की दुआएं मांगता… जीती रही मैं हर दृश्य, और फिर आया वही सीन, जो कब से मेरे दिल पर कुंडली मारे बैठा था… कजरी का वो रूप देखकर, अमरनाथ के साथ मैं भी रुआंसी हो बैठी…

और इस मोड़ पर अंदाज़ा लगा कि ये कहानी, अब एक साथ कई दिशाओं में भागेगी… वैश्या बनी कजरी के लिए आदमी का एक ही रूप साकार हो सकता है और अमरनाथ के लिए पिता के अतिरिक्त कुछ भी होना, असंभव… कथानक समझ चुकी थी और अब मेरी दिलचस्पी इसकी ट्रीटमेंट पर थी..

यकायक दिल कहीं पीछे छूट गया और दिमाग हावी हो चला.. सामाजिक सरोकार, रिश्तों की नाज़ुक धार और मानव मन की बेवकूफियां, सब नज़र आने लगा, अमरनाथ के किरदार में… शुरुआत में बेपरवाह संजीव के जिस किरदार ने मन लुभाया था, वही इंसान अब मुझे गलतियों का पुतला नज़र आने लगा…

चंदा को दिया वादा न निभाने की वजह बड़ी उलजुलूल सी लगी.. डॉक्टरी का इम्तेहान देते ही लौट आने वाला इंसान, कब और कैसे, सर्जरी करके किसी की मौत का कारण हो, जेल चला गया और क्योंकर कभी इस बात को अपनी प्रेयसी से कह भी, न पाया.. और अब उसी प्रेमिका की बेटी के अपने प्रति बढ़ते आकर्षण को समझ भी नहीं पा रहा.. सोचने लगी क्या पुरुष इतने ही संवेदनहीन होते हैं.. न कह पाते हैं न समझ पाते हैं..

मैं सवालोंं के इन चक्रवातों में गोते लगा ही रही थी कि दिल ने डपट कर कहा, दिमाग को चुप करवा ले, इमोशनल मूवी है, लॉजिक मत ढूंढ़…

बस दिल का वापिस कब्ज़ा हुआ और आंखों से आंसू झरने लगे.. खूब रोई, चंदा, अमरनाथ, कजरी के दुख को आत्मसात करते हुए और फिर दिल से दुआ निकली, इस पछतावे को किसी अच्छे मोड़ पर ले जाना.. और हुआ भी कुछ ऐसा ही.. पर पता नहीं क्यों, दिमाग में अब भी खटक रहा है कि क्या कमलेश्वर ने अपने उपन्यास में भी इसी तरह कहानी का अंत किया, या कुछ लीक से हटकर किया…

खैर, इसका फैसला तो तभी कर पाऊंगी जब “आगामी अतीत” पढूंगी.. हालांकि अजब बात कि उपन्यास का नाम एक दोस्त ने बताया, क्रेडिट लिस्ट में कहीं नहीं था…

बहरहाल, मूवी बहुत ही बढ़िया है, दिल ओ दिमाग पर असर डालती हुई और आप भी मुझ जैसे हुए तो कभी जजमेंटल तो कभी सेंटीमेंटल करती हुई.. सोचने और महसूसने को असला भरपूर मिलेगा मौसम में… देखिएगा…
Anupama Sarkar

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