चारों ओर कोलाहल और भीतर पसरा सन्नाटा.. खो जाना चाहती हूँ इस मौन में… अपने अंतर्मन में डुबकी लगा परमानन्द को महसूसती… पर चौंक उठती हूँ कि अंदर के हालात भी कुछ ठीक नहीं.. कल ओशो को सुनते हुए जिज्ञासा हुई थी, एकाग्रता और ध्यानस्थ होने के अंतर को समझने की.. ओशो कह रहे थे एकाग्रता केवल एक विचार पर केंद्रित हो जाना है.. इस से थकन ही होगी, सुख नहीं.. और सच जब अपने अंदर झाँक विचारों के रेले को फिसलते देखती हूँ.. तो बरबस यही कौंधता है मन में कि किसी ख़्याल को थामना बेमानी ही.. शायद सहेजने की प्रक्रिया ही गलत है… कुछ बाँध कहाँ पाते हैं हम… ज़िन्दगी की चिकनी राहों पर मील के पत्थरों सी रुकी रुकी साँसें ख़ुशी देती भी तो नहीं.. बस एक डर बैठा देती हैं… जो है उसे खो न दूं और जो नहीं उसे कैसे पाऊँ.. और इस खोने-पाने के भँवर में गोते खाती जीवन नैया अपनी दिशा और दशा से विस्मित ही रहती है… हर पल आशंकाओं के बादलों तले, गर्म धरा सी तरसती..
इस कलम को कागज़ पर बिठा यूँ ही ख्याल बींधते.. मेरी नज़रों के सामने घूम जाती है सुबह सुबह दिखी वो मृत छिपकली.. उसकी निर्जीव देह पर रेंगती सैंकड़ों चींटियाँ मुझे क्षणभंगुरता का बोध कराने लगती हैं.. समय के मानकों में साँसों और आसों का आंकलन करती मैं… ठिठक जाती हूँ.. एक बार फिर से अंदर के अव्यक्त कोलाहल को बाहर के निरर्थक मौन से तौलती.. अकस्मात ओशो फिर से याद आते हैं… एकाग्रता छोड़ मैं फिर से रेले में भटक जाती हूँ.. मुड़कर देखती हूँ और इन शब्दों में अत्यधिक प्रयुक्त ‘मैं’ को समझने का प्रयास विफल होते देख.. गंभीरता पर हास्य का मुखौटा औढ़ा.. मेरा वाचाल मौन वास्तविकता की ज़मीन पर वापस रेंगने लगता है.. बाहर की भीड़ में खुद को खोजता..
Anupama
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