“कपाल पर ज़ोर से पांच बार मारिए, आत्मा को मुक्ति मिलेगी”
कलेजा कैसे कांपता है न ये सुनकर..
पर वो क्या करे, जिसके घर का चूल्हा ही श्मशान की आग से जलता हो.. जो रोज़ जिस्मों को राख में बदलते देखता हो.. जिसे मालूम हो कि ये चमड़ी कितनी कच्ची है.. चिता की आग में धू धू जल, गंगा में बहा दिए जाना, इसकी नियति है.. कैसे जीता होगा वो, जो मौत को हर पल, किसी को ले जाते देखता है.. क्या उसकी ज़िंदगी में खुशी, सुकून, उम्मीद के पल भी होते होंगें.. या फिर मौत का साया, उसके लिए संगी साथी बन जाता है.. एक शाश्वत सत्य, जिस से दूर भागना सम्भव ही नहीं…
नहीं जनाब! मानव मन इतना सरल सपाट नहीं.. मौत को नज़दीकी से देखने वाला भी, उसकी आहट से उतना ही हतप्रभ होता है और ज़िन्दगी की छोटी मोटी खुशियों को भी उतना ही भावुक होकर जीता है, जितने कि मैं और आप!
बात कर रही हूं, एक बिल्कुल हटकर बनी फिल्म “मसान” की.. कल रात देखी और बिना लिखे, रहा नहीं जा रहा.. सच कहूं तो इस मूवी की शुरुआत में कुछ पूर्वाग्रह मन में थे.. कि शायद इस फिल्म को जाति धर्म और ऊंच नीच के समीकरणों में बांध, समाज की विषमताओं को लेकर, सदियों हुए अत्याचारों की गाथा सुनाकर, एक तंज के रूप में बनाया जाएगा.. पर जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ी, मेरे भ्रम टूटते चले गए..
यहां जातीय समीकरण और विषमताएं बैकड्रॉप में हैं, और उभरती सकारात्मक सोच और आगे बढ़ने की ललक व मौके, मेन एजेंडा… फिल्म एक दो सीन छोड़कर, जाति सम्बन्धी विचारों को तूल नहीं देती… बल्कि बनारस के घाट पर जलती चिताओं के बीच चलती कहानी, आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक ऊर्जा से ओत प्रोत है…
मसान, दो प्रेम कहानियों के सहारे आगे बढ़ती है.. पहली कहानी देवी पाठक (रिचा चड्डा) की, जो एक गरीब ब्राह्मण की पढ़ी लिखी समझदार बेटी है, पर प्रेम के वशीभूत हो एक कायर लड़के से सम्बन्ध बनाने का खामियाजा ढोती है.. लड़का आत्महत्या का आसान विकल्प चुनता है, और देवी एक मिनट को भी मौत के बारे में सोचे बिना, अपना सिर ऊंचा उठाए, आत्मनिर्भर होने की कोशिश में जुट जाती है..
रिचा को इस से बेहतर रोल में मैने नहीं देखा.. उनके पिता की भूमिका निभाते संजय मिश्रा का अभिनय भी कमाल लगा.. अब तक उनकी इमेज ऑफिस ऑफिस में पान चबाते शुक्ला जी की ही थी.. पर यहां उन्होंने बहुत ही सधा हुआ अभिनय किया है, एक मजबूर बाप के रूप में, वे हर सीन में गहरा असर छोड़ते हैं..
वहीं साथ साथ चलती है दूसरी कहानी.. पीढ़ियों से हरिश्चंद घाट पर मुर्दे फूंकने वाले डोम, दीपक की कहानी.. ये लाइन मैंने इसलिए लिखी क्योंकि पूरी मूवी में सिर्फ एक बार दीपक को अपनी जाति और कर्म को लेकर insecurity होती है और वो इन्हीं शब्दों में, गुस्से में खुद को कोसता है..
पर नीरज घेवन की मसान, जैसा कि मैंने शुरू में कहा, जातिवाद से परे है.. यहां दीपक, सिविल इंजीनियरिंग करता हुआ, अपने भविष्य और नौकरी को लेकर पूरी तरह संतुष्ट है.. अपने पिता का गर्व और शालू गुप्ता का प्यार है.. और सिर्फ और सिर्फ अगर मौत का साया, उसके सिर पर न मंडराता, तो धरती का सबसे सुखी और संतुष्ट इंसान भी…
दीपक की भूमिका निभाते विक्की कौशल, गज़ब के कलाकार हैं.. डायलॉग डिलीवरी से लेकर, हंसने, रोने और प्रेम विरह में उलझे लड़के का रोल, बहुत ही सरलता से निभाते, चले जाते हैं.. उनके मज़बूत कांधे सिर्फ कपाल फोड़कर आत्मा को मुक्ति नहीं दिलाते, बल्कि विचारों विकारों को भी स्वतंत्र किए चलते हैं…
उनकी प्रेमिका के रोल में श्वेता त्रिपाठी हैं, मासूम और भोली भाली, जो सहेली के आत्मसम्मान के लिए लड़ सकती है और प्रेमी के लिए समाज को चुनौती देने का माद्दा रखती हैं..
कुल मिलाकर ये फिल्म आपको बांधे चलती है, बनारस के घाट से इलाहाबाद के संगम तक, वहां की आबोहवा और परिपाटियों के बीचोंबीच, आधुनिकता की बयार लिए…
फिल्म खत्म हो चुकी पर मैं “मन कस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे, बात न होती पूरी रे” को लूप में सुन रही हूं.. ज़िन्दगी का फलसफा, मौत की आहट में सुन रही हूं.. सच में मरने के बाद कपाल फोड़ देना बेहद ज़रूरी, इस ज़िन्दगी के ऊहापोह को आगे ले जाना ठीक जो नहीं.. मसान, जीवन मृत्य का सामूहिक उत्सव ही ठहरा… एक बेहतरीन फिल्म, जो चुपके से गहरा असर छोड़ गई।
Anupama Sarkar
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