मरूस्थल सी है ज़िंदगी
गरम थपेड़ों में उलझी
जलती रेत पर पांव तले
ज़मीं कब खिसकने लगे
किसे पता !
ज़िम्मेदारियों की धूल है यहाँ
निराशा की आंधियां भी
थके से तन मन
कब दम तोड़ दें
किसे पता !
अनिश्चित है सब कुछ
अप्रत्याशित भी
पर रेगिस्तान में बिन जले तड़पे
oasis का भी क्या मज़ा !
माथे का पसीना
पांव के छाले
रूह की थकन
आ निचोड़ दें!
भूल जाएं कड़वाहटें
बस सुकून दें!
Anupama
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