Review

Manto Movie Review

कैसा महसूस होता है, जब आपने किसी के बारे में पहली नज़र में ही जो राय बनाई हो, वो बिल्कुल सटीक निकले?

आप कहेंगे, यकीनन अच्छा ही लगेगा, थोड़ा सा इतरा भी सकते हैं अपनी दृष्टि और समझबूझ पर.. आखिर आसान कहां किसी को परखना!

अजी नहीं, गलत सोच रहे हैं आप… ये परख ही तो सब उलटा देती है, दिमाग घूम जाता है, जब दिल हाथ पकड़ कर, दूसरी दिशा में चल देने को मजबूर कर दे!

कुछ ऐसा ही हुआ है आज, मंटो देखते देखते… कुछ महीने पहले जब नंदिता दास द्वारा निर्देशित मंटो, रिलीज़ हुई थी, तो बहुत से दोस्तों को इसे देखने के लिए उत्साहित पाया था.. पर मैं बिल्कुल देखने के मूड में नहीं थी..

अक्सर कहती नहीं, पर मंटो क्या, मुझे किसी भी लेखक के जीवन के बारे में जानने में कोई खास रुचि नहीं रहती… मेरे लिए शब्द संसार मायने रखता है.. कविता, कहानी का अपना दम खम, जिसके सहारे मेरी कल्पना की उड़ान को हवा मिल सके, लिखने वाला उस संसार में मुझे लेकर जाने का केवल माध्यम… इसलिए अमूमन किसने लिखा, क्यों लिखा से प्रभावित होती नहीं.. टैगोर हों, शरत चंद्र, आर के नारायण, तोलस्तोय हों या फिर अरुंधति, चेतन, अमृता, मंजू कपूर, कृष्णा सोबती या फिर कानू मोहंती और किशोर ठुकराल.. मेरे अंदर के पाठक को कोई फर्क नहीं पड़ता, बस कहानी दमदार हो, मुझे क्या करना उनके लेखक की पॉपुलैरिटी या जीवन गाथा जानकर…

समझती हूं कि आप में से ज़्यादातर को ये बहुत अटपटा लगेगा, पर सच यही.. जब तक लेखक को न जानूं, मेरे लिए बहुत आसान होता है, किसी भी किरदार और कहानी से जुड़ पाना, बिल्कुल नैसर्गिक और निष्पक्ष स्तर पर.. ज़मीनी हकीकत समझ लेने के बाद मेरे लिए उस लेखक का काम अपनी अपील खो देता है…

पर आज जब Netflix पर मंटो का नाम चमकता दिखा, तो लगा कि ये नियम मेरे पसंदीदा लेखकों पर ज़्यादा कारगर है, मंटो से तो मैं वैसे भी कोई खास प्रभावित नहीं… जी, ये दूसरा शॉकिंग सच है… मैंने मंटो की कुछ कहानियां, दोस्तों के कहने पर पढ़ीं और हर कहानी के बाद बदन में झुरझुरी महसूस की, दिमाग सुन्न हुआ, दिल अचकचाया.. और मैं परे हट गई…

ऐसा नहीं कि कभी बर्बर, दहशत भरे अफसाने पढ़े नहीं.. बिल्कुल पढ़े हैं, डूबकर पढ़े हैं पर मंटो की कहानियां सच के इतनी करीब हैं कि उन्हें कल्पना मानने में मैं हमेशा नाकामयाब रही… और तिस पर मंटो की गालियों भरी भाषा और जिस्मानी वहशीपन की नुमाइश…

हर बार मुझे यही लगता कि जिस दौर में मंटो ने ये सब लिखा, तब ये अफसाने नहीं, लोगों की असलियत थी.. ये सब ज़ुल्म किसी न किसी ने, कहीं न कहीं सहे थे.. विषयवस्तु से परहेज़ नहीं मुझे, सच्चाई उकेरने से ऐतराज़ भी नहीं, पर उन्हें पढ़ते हुए, अक्सर लगा कि जिसने ये सब लिखा, उसकी खुद की फ्रस्ट्रेशन भी इनमें समाई है… बल्कि ज़्यादातर कोई लुका छिपा गुस्सा, कोई नाराज़गी है, जो फूट फूट कर, गालियों और अभद्रता के रूप में बाहर निकल रही है, परिस्थिति केवल उस वक़्त की नहीं, बल्कि लिखने वाले की भी बहुत खराब रही होगी..

और बस यही सोच मेरा मन इन कहानियों से उचट जाता, आंसू की स्याही से लिखे लफ्ज़ मुझे भाते नहीं .. और मंटो की मायूसी साफ झलकती है उनके लिखे में, उनकी चिढ़, उनकी बेबसी, उनका उन्माद साफ नज़र आता है, मुझे व्यथित करता हुआ.. कह सकते हैं कि न चाहते हुए भी मंटो, अपनी कहानियों के सबसे ज़रूरी किरदार बन जाते हैं, उनकी उपस्थिति बाकी सब पर भारी पड़ती है…

और यही बात मैंने आज ये फिल्म देखते हुए फिर महसूस की… लगभग आधी फिल्म तक मेरे सभी पूर्वानुमान सही साबित हुए… यहां तक कि नंदिता दास भी मुझे मेरी ही तरह उलझी हुई लगीं, वे मंटो के अफसानों में ही उन्हें ढूंढती दिखीं… अफसानानिगार की ज़िंदगी और उनके किरदार बेतरतीब एक दूजे से लिपटे हुए… हलका सा इशारा ये भी मिला कि मंटो की पॉपुलैरिटी बहुत हद तक, उनके फिल्म जगत में दखल के कारण रही… कम से कम हिंदुस्तान में उन्हें पहचान, फिल्मों और उनसे जुड़े बाशिंदों ने ही दिलवाई… आधी फिल्म तक मैं सचमुच खुद को शाबाशी दे रही थी कि ये सब मैंने सिर्फ चंद कहानियां पढ़कर ही जान लिया था!

पर आधी फिल्म बीतने के बाद, मंटो का सीढ़ियां उतरता करियर, उनके मानसिक संतुलन का बिगड़ना, सबसे खुद को अलग थलग पाता एक हुनरमंद इंसान, मुझे अंदर तक झकझोरने लगा… नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की मुरीद हो चली हूं… वे जो भी किरदार निभाते हैं, बस वही बन जाते हैं… और यहां वो मंटो हैं, एक हारा हुआ पिता, नाकामयाब पति, एक खुद्दार आदमी… हां, ये फिल्म बिल्कुल वही बतलाती है उनके बारे में, जो उनके अफसानों में झलकता है… अश्लीलता अक्सर आवरण होती है… किसी बात से जब आप हद दर्जे की नफरत करते हों या बहुत डरते हों, तो आप उसे गालियों से नवाजते हैं… बार बार यही कौंधता रहा दिल ओ दिमाग में, सादत हसन मंटो, तुम खुद एक अफसाना हो, तुम्हें समझने वाली मैं कौन भला…

और ये मूवी देखते हुए, मन फिर उचट गया.. वही झुरझुरी, वही सुन्न पड़ता दिमाग, आंखें मूंद, सच्चाई से परे होती मैं… शायद मंटो और मेरी बनती ही नहीं… उनकी कहानियों की तरह ही, मैं उनके जीवन से भी नज़रें फेर लेना चाहती हूं, कि दिल मेरा कमज़ोर है, झटके सह पाता नहीं…Anupama Sarkar

 

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