Defender मैगज़ीन में प्रकाशित मेरी कविता :
बिजली की रफ्तार से भाग रहा है ये मन
पंगडंडियों पर नंगे पांव सरपट दौड़ता।
उस ऊंचे शिखर की ओर
जहां सुबह सवेरे गोल मटोल सूरज
आसमां की गोद से प्रकट होता है
आंखों को ठंडक देती लालिमा का
स्वर्णिम दृश्य उकेरता है।
वहीं कहीं छोटी सी नदिया भी तो है
जिसमें पानी शीशे की तरह चमकता है।
सूर्य का प्रतिबिम्ब इक छोटे
बच्चे सा अठखेलियां करता है।
जलतरंगों के संग डूबता उबरता
कभी गेंद की तरह गोल
कभी बिखरी किरणों का पुंज
ज्यों सैंकड़ों मछलियों का झुंड
जल क्रीड़ा कर रहा हो।
और वहीं किनारे पे झूमते चीड़ के वो पेड़
हवा की सरसराहट का
मधुर स्वर कानों में उड़ेलते
अपने गीले कोमल फूलों को गिरा
धूप में पक कठोर होने की मूक आशीष देते।
वो कलरव करते पंछी झूमते मोर
ललचाई सी भागती गिलहरियां और
कोलाहल करते वानर
रस सा घोल रहे हैं मन में और
मैं भाग रही हूँ सरपट उस क्षितिज की ओर।
बिखरे बालों लाल गालों से
प्रकृति की सुंदरता में एकरस होती
जाने किस दुनिया में खोई।
अरे मन थम जा ज़रा
अब तो सांस फूलने लगी!
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