Fursat ke Pal

मन

आज कलम हाथ में आई तो लगा जैसे विचारों का रेला बाँध तोड़ने की फिराक में सजग बैठा है। किसी पहाड़ी नदी सा पूरे उफान पर है। बिना किसी किश्ती का इंतज़ार किये बस कूद पड़ना चाहता है । बिना सोचे समझे कि खिवैया है भी कोई पार लगाने लायक या नौसिखिये माझी संग नाव डूब ही जायेगी गहरे पानी में।

अपनी रंगीनियों में डूबा कोई मदमस्त अल्हड़ मल्लाह हो रखा है ये मन। ऊंचे स्वर में गीत गाता नदी पार कर रहा है बिना इस बात की परवाह किये कि किस ओर बह रही है हवा। पतवार हाथ में है या छूट गयी। समुद्र शांत है या खतरनाक हिल्लोरे मार रहा है। बिना आगा पीछा विचारे यह तो बढ़ रहा है अपनी ही मस्ती में। वैसे ये है भी बावला ही इसे फर्क पड़ता भी नहीं अपने होने या न होने का। कोई सुन रहा है इसकी या ये यूँ ही हवा में उड़ान भर रहा है इसे होश भी तो नहीं।

ऐसा लगता है मानो कोई पानी का बुलबुला है जिसमें ज़बरदस्ती की हवा भर दी गयी है और वो उड़ रहा है खुले आकाश में कल्पनाओं के पंख लगाये। कभी दिमाग के सशक्त परखे विचारों को पल भर के लिए ठिठक कर जांचता है, उलट पलट कर समझने का एक अनमना सा प्रयास करता है और फिर हथियार डाल देता है। आखिर ज़रुरत भी क्या बेमतलब की मुसीबत मोल लेने की। स्वछन्द विचरण छोड़ तंग गलियों में उलझने की।

फिलहाल कविता, कहानी, लेख, संस्मरण किसी भी विधा में बंधने का मन नहीं इसका, तो बस कर रहा है भ्रमण यूँ ही, उड़ा उड़ा सा। चाहें तो समझ लीजिये इसकी व्यथा नहीं तो हटाइए परे ज़रुरत भी क्या हमेशा गहराई में पैठ मोती ढूँढने की!

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