बात कुछ पुरानी है पर उतनी भी नहीं कि भुलाई जा सके.. कहानी की नायिका एक मकड़ी… ऐसी-वैसी नहीं, गज़ब की जादू भरी… हाँ, दूसरों से अलग थी, खुद में खोयी, औरों से दूरी बनाए, जाने क्या-क्या सोचा करती.. इंसान होती तो दार्शनिक या कलाकार कहलाती.. पर वो थी बेचारी मकड़ी.. इक अदनी सी जान, दीवारों, छतों पर टँगे-टँगे जाला बुनने वाली…
पर कहते हैं ख्वाहिशों के पर होते हैं.. अपनी उड़ान चुन ही लेतीं हैं.. हमारी मकड़ी ने भी कुछ ऐसा ही किया.. हर जाले को कलाकृति बनाने की ठान ली उसने..
जहां दूसरी मकड़ियां कुछ देर बुनाई करके शिकार पकड़ने का इंतज़ार करतीं, वहीं वो पगली हर धागे की किस्म को सुधारने और जाल को मनमोहक बनाने के प्रयत्न में लगी रहती.. उसकी सहेलियां उस पर हंसतीं कि जैसा जाल बुन रही है, उसमे तो कोई शिकार भूलकर भी नहीं फंसेगा.. कोसों दूर से दिखती है तेरी कला.. सब कीड़े भाग जाते हैं..
बात कड़वी थी पर सच्ची भी.. कला से पेट किसका भरा… दीवार सुन्दर जालों से पटी हुई थी और कलाकार भूख के मारे दम तोड़ने के कगार पर.. मकड़ी सोच ही रही थी कि अब करे तो क्या… यूँ तो वो जाल का एक हिस्सा खाकर अपनी क्षुधा शांत कर सकती थी.. पर ये तो उसके जीवन की उपलब्धियां थी, यूँ ही ज़ाया कैसे होने देती… वो लगी रही..
हाँ, अब उसने रफ़्तार धीमी कर ली थी.. आकार भी कुछ छोटा.. खुद भी सिकुड़ सी गई थी.. मानो ज़िन्दगी के आखिरी दिन गिन रही हो..
पर तभी घर में नया परिवार रहने आया.. दीवारों की सफाई पुताई की जाने लगी.. अब उसके जालों का हटना तय था.. और मकड़ी का मरना भी.. बाकी सब मकड़ियां अपने जाले छोड़ पहले ही भाग चुकीं थीं.. टूटे फूटे धागे यहां वहां लटके हुए थे.. अंत करीब था..
कलाकार मकड़ी ने गहरी सांस ली और अपनी सारी कलाकृतियां निगल लीं.. दिनों की भूखी को एक साथ इतना प्रोटीन कैसे पचता.. दम तोड़ दिया और जाते-जाते अपनी पहचान भी साथ ले गई.. हवा हुई वो मकड़ी जो जाले नहीं कल्पनाएं बुनती थी..
Anupama
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