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प्रेम विवाह

प्रेम पर मित्र की कविता पढ़ी.. और देर तक सोचती रही कि सही ग़लत, आगे पीछे, परिस्थितियों और परिणामों को सोचकर प्रेम होता है क्या.. और अगर नहीं तो क्या इनसे प्रभावित भी नहीं होता?

छोटा सा शब्द है प्रेम.. पर जितना इस पर लिखने कहने का प्रयास हुआ, शायद ही किसी और भाव पर होता हो.. दरअसल भावनाओं का प्रवाह समझना कठिन ही नहीं, असम्भव है.. खासकर तब जब हम खुद इसके घेरे में खड़े हों.. किसी से प्रेम होना, बेहद खूबसूरत अहसास है.. पर क्यों, कैसे, कब हुआ और क्यों, कैसे, कहां साथ छूट गया, ये समझने में उम्र बीत जाती है, हाथ पल्ले कुछ नहीं आता..

कल्पनाओं में बहकर कहूं तो शायद समझ कभी आ ही नहीं सकता कि क्योंकर किसी से हुआ और उस जैसे ही बाकियों से नहीं हुआ.. आंतरिक ऊर्जा का आदान प्रदान है प्रेम और हम तो लिखी दिखी बातों को भी अलग अलग तरीके से समझते हैं, फिर इस अनकहे अहसास पर क्या ज़ोर..

हां, एक बात दीगर है कि प्रेम, किसी के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा दिखना/होना है, जिस से हम जुड़ाव महसूस करें.. और वहीं, कड़वी सच्चाई है कि प्रेम आपको आपकी समझ बूझ के अनुसार ही होता है.. मानव मन कितना भी उलझा हो, अपने लिए साथी ढूंढते हुए, हम सभी बेस्ट देखते हैं.. विपरीत के प्रति आकर्षण होने के बावजूद, दरअसल प्रेमी कहीं किसी स्तर पर बिल्कुल एक जैसे होते हैं.. अक्सर आइना होते हैं एक दूसरे के लिए.. बस ये समझने की क्षमता नहीं होती, जब आप प्रेम में हों!

वैसे, हमारे यहां फिल्मों में केवल शक्ल देखकर ही हीरो को हीरोइन से प्यार हो जाता है.. और कुछ तकरार इज़हार के बाद इकरार.. उसके बाद की ज़िंदगी, वे साथ में कैसे बिताते हैं, ये जानने की इच्छा न दर्शक में होती है और न ही फिल्मकार में.. और हो भी क्यों.. आखिर हम असलियत में भी तो यही करते हैं.. लड़का लड़की को एक दूजे से परिवार, रुतबा, रूप देख मिलवाते हैं.. परस्पर एक दूसरे को तौलते हैं.. सम्बन्धी बनने बनाने से पहले औकात जानी समझी जाती है.. और चार दिन के शोर शराबे के बाद दो जन, सारी उम्र के लिए एक दूसरे के साथ बन्ध जाते हैं..

हालांकि ऊपरी तौर पर अरेंज्ड मैरिज का ये तरीका बेहद उथला लगता है, इसके बावजूद हमारे समाज में ज़्यादातर शादियां जो परिवार द्वारा करवाई जाती हैं, सफल होती हैं.. और वहीं लव मैरिज अब भी कुछ कम ही होती हैं, और हों भी तो बहुत कामयाब नहीं..

पर यहां कामयाबी का मतलब भी बहुत सतही है.. आखिर दो लोग, जो एक दूसरे के साथ, बच्चों को संग लिए, हर पारिवारिक कार्यक्रम में खुश नज़र आते हैं.. वही अपने अंतर्मन में एक दूसरे के कितने साथ हैं, कौन जानता है.. वहीं दूसरी ओर, एक मुस्कान पर जान देने वाले प्रेमी, अपनी प्रेमिका का साथ कब तक निभा पाते हैं, ये भी कौन जानता है..

सोशल मीडिया पर प्रेम पर बहुत कुछ पढ़ती हूं, समझ में इतना ही आया कि अधिकतर लोग प्रेम और विवाह को mutually exclusive मानते हैं.. शादी कर ली, तो निभानी है, पर हां, सोच में कोई और भी हो सकती/सकता है, जब तक बात ओपन न हो जाए, कोई खास प्रॉब्लम नहीं..

वहीं प्रेम करने वालों के लिए इस शब्द का अर्थ एक खूबसूरत लड़की को बाइक पर घुमाना या एक cool dude के साथ क्लब जाने तक सीमित भी हो सकता है.. ध्यान दीजिएगा कि यहां भी सारा दारोमदार शक्ल और रुतबे पर ही केन्द्रित है.. तो अलग अलग दिखते हुए भी, हमारे समाज में प्रेम और विवाह का आधार एक जैसा ही है.. सुंदर/धनवान/रुतबा.. आखिर हम जो आस पास देखकर बड़े हुए हैं, उसी के अनुसार तो जीवन भी जियेंगें न!

जब भी इस विषय पर सोचूं, लगता है कि कहीं न कहीं तो हमने प्रेम और विवाह का अर्थ समझने में ही भूल कर दी है.. प्रेम केवल दैहिक और आर्थिक सुविधाओं पर नहीं टिक सकता.. इस से कहीं गहरे उतरना होता है प्रेम में.. मन खोलना पड़ता है, अपनी insecurities को साथी के सामने बेझिझक स्वीकारना होता है..

जब हद से गुज़र जाए प्रेम, तो उसकी प्राकृतिक परिणीति होना चाहिए, विवाह.. उस से पहले नहीं.. एक ऐसा समय जब एक स्त्री और पुरुष एक दूसरे को इतना जान समझ लें कि विषम और सम परिस्थितियों में, साथ निभाने की हिम्मत कर सकें, परवाह और नेह, देह के आकर्षण से आगे बढ़ चुका हो.. किसी एक के असफल हो जाने, बीमार पड़ जाने या भूल चूक हो जाने पर भी, दूसरा उसे स्वीकार कर पाए.. जब सिर्फ अच्छाइयां न दिखती हों, बल्कि आप एक दूसरे की बुरी आदतों से भी परिचित हो चुके हों.. शायद तब होना चाहिए प्रेम विवाह.. अन्यथा इसमें और अरेंज्ड मैरिज में अंतर भी क्या.. सिवाय इसके कि इसमें आपका अपना परिवार, सुलह करवाने में नहीं, बल्कि दोष निकालने में ज़्यादा तत्पर रहेगा..

प्रेम अहसास है, एक सा नहीं रह सकता.. कभी निर्झर बहेगा, कभी बूंद बूंद के लिए तरसा देगा.. खुद से खुद की पहचान है, और साथी में अपना साया देखकर भी घटने बढ़ने की तमाम संभावनाओं का नाम है प्रेम.. जब तक ऐसा न हो, समझिए आप अब भी समाज की बेड़ियों वाले ढांचे की गिरफ्त में ही हैं, मन की गुज़र में नहीं.. तब तक प्रेम समझना असंभव ही रहेगा और जीना उस से भी कहीं कठिन.. सही गलत, परिस्थिति, परिणाम, सब उलझने सुलझने हैं इसमें, ये कहीं भी कभी भी सरल सुगम नहीं, बस इसमें आपकी मर्ज़ी शामिल हो तो, दुख नहीं लगता.. प्यार से सोचिएगा, स्त्री पुरुष के सम्बन्ध का नाम ही है प्रेम, कैसे भी मिले हों, कैसे ही जुड़े हों!! अनुपमा सरकार

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