Hindi Poetry

सजीव निर्जीव

बचपन में कभी सजीव निर्जीव
का अंतर समझा था।
सजीव वो जो चलता है बोलता है
सांस लेता है सोचता है
निर्जी व वो जो,है इससे बिल्कुल उलट
दिखने में सुंदर पर असल में मरघट!

कुछ बड़ी हुई तो इस अंतर पर गौर करने लगी
अपनी तुलना पेड़ पौधों पंछियों से करने लगी
ये सब भी तो सजीव थे
पर मुझसे कितने अलग
मैं थी उनसे बेहतर
सोचने समझने में श्रेयस्कर।

तब अपने इंसान होने पर अभिमान हुआ था
सजीव सजीव के बीच का अंतर ज्ञान हुआ था।

पर आज मेट्रो में बैठे बैठे सहसा
एक ख्याल आया
सरपट भागती दीवारों दौड़ते ख़ंभों
को देख सिर चकराया।
उन पर लगे होर्डिंग्स मुस्कुरा रहे थे
अपने जीवित होने का प्रमाण दिखा रहे थे
और अंदर बैठा था इंसान निस्तब्ध हैरान
कभी फोन निहारता कभी अपलक विचारता।

कुछ शक हुआ कि आखिर सजीव कौन है
ये स्थिर बैठा इंसान या इसके बनाए विमान?

शायद मानवता आज कुछ बदल गई है
सजीव निर्जीव के बीच का अंतर भूल गई है।

किसी के साथ हो कोई अन्याय या पाप
ये इंसान कुछ नहीं बोलता
नारी परिवार देश को अपमानित देख
इसका खून नहीं खौलता
किसी की मदद को आगे नहीं बढता
किसी की भलाई के बारे में नहीं सोचता।

हां कभी कभी एक लहर आती है जो इसे झंझोड़ती है
कुछ देर को ही सही मानवता को कचोटती है
नारे लगते हैं जुलूस निकलते हैं
समाज बदलने के बुराइयां हटाने के वादे होते हैं
पल भर को लगता है मानवता का रूप बदल रहा है
इंसान जीने का मतलब फिर सीख रहा है!

पर किसी भ्रम में न रहें ये तो दो पल की आंधी है
आती है शोर मचाती है और फिर कहीं खो जाती है
रह जाता है तो थकित इंसान
चलने फिरने सोचने समझने से अंजान।

कभी कभी सोचती हूँ
सांस भी लेता है या वो भी भूल गया
जैसे मेरे बचपन का वो पाठ कहीं पीछे
बहुत पीछे छूट गया।

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