कल Lipstick under my Burkha देखी… कई बार कुछ चीज़ें इतनी हाइप कर दी जाती हैं कि आपके मन में उन्हें लेकर बहुत से पूर्वाग्रह बन जाते हैं..
पर अच्छा ये हुआ कि मैंने लगभग बराबर मात्रा में इस फिल्म के पॉज़िटिव और नेगेटिव रिव्यू सुने.. लगा कि शायद ये उन फिल्मों में से एक है जो हर इंसान अपने तरीके से इंटरप्रेट कर सकता है.. सो जब खुद देखने बैठी तो किसी भी तरह की अपेक्षा से कोसों दूर थी…
और अब मूवी देख लेने के बाद इसे एक औसत पर सफल कहानी कहूंगी, जो हद दर्जे तक कमर्शियल फायदे के लिए भड़काऊ और भोंडे सीन्स से लैस होने के बावजूद, कुछ सवाल आपके ज़हन में उठाने का माद्दा रखती है…
फिल्म की कहानी चार औरतों के इर्द गिर्द घूमती है, एक ही बिल्डिंग में रहकर भी चारों का ही व्यक्तिगत जीवन, सोच व पैरोकार बहुत जुदा हैं…
सबसे बड़ी उम्र का किरदार निभाया है रत्ना पाठक शाह ने.. वे बुआजी के किरदार में भोपाल की हवाई मंज़िल की मालकिन व कर्ता धर्ता हैं और साथ ही सस्ते रोमांच भरे नोवेल्स पढ़ते हुए, इस फिल्म की सूत्रधार भी.. कैसे हम सब किसी को उसकी इमेज में फिट कर देते हैं और उसके बाद, उसके इंसान होने का हक भी छीन लेते हैं, इस बात को निर्देशक ने उनके किरदार में बखूबी एक्सपोज़ किया है.. कब दूसरों की देखरेख करते करते और हवाई मंज़िल को ज़मीं पर कायम रखने की कोशिश में ऊषा परमार, केवल बुआ बनकर रह जाती है, उसे खुद भी पता नही चलता
पर मानव मन की एक अजीब गुत्थी है कि उसकी भावनाओं को जितना दबाओ, उतनी ज़ोर से उबलेगा… त्याग के नाम पर अगर अपना जीवन, कैद करोगे तो दम ही घुटना है.. और इस घुटन की परिणीती अक्सर सारे बन्धन तोड़कर होती है.. और अक्सर गलत तरीके से… ऊषा भी खुद की ज़रूरतों को नकारते नकारते अनचाहे ही अपनेे से आधी उम्र के लड़के से आकर्षित हो उठती है.. अब इसका फल तो कष्टकर होना ही था…
और दरअसल यही द्वंद और ऊहापोह से भरे माहौल और किरदारों की बेचैनी इस मूवी की बेसिक प्रिमाइस है… यहां हर किरदार अपनी ज़िन्दगी से कुछ हटकर करने की कोशिश में जुटा है… और इस बात का द्वंद और छटपटाहट हर किरदार में झलकती है..
रेहाना के पास बोलने और पहनने की आज़ादी नहीं है, ईमानदारी और मजहब के नाम पर उसे नेक होने की हिदायत दी जाती है इसलिए वो चुपचाप माल्स में चोरी करके नाटकीय होने की हद तक ‘जीन्स का हक जीने का हक’ के नारे लगाती और सिगरेट के छल्ले उड़ाती दिखती है..
शीरीेन का पति उस से सिर्फ देह का सुख चाहता है, बल्कि हर रात जबरन छीनता है… इसलिए वो अपनी उस दुनिया से एकदम उलट, एक मीठा बोलने वाली और लोगों को प्यार से सामान बेचने वाली सेल्स गर्ल हो जाने में ही अपना निर्वाण ढूंढ़ती है.. फिनेनशियल इंडिपेंडेंट होने से कहीं ज़्यादा, मुझे कोंकणा के किरदार में अपने पति के प्यार के दो बोल के लिए तड़पती औरत दिखी…
वहीं चौथा किरदार था लीला का.. उस से मैं ज़्यादा आइडेंटिफाई नहीं कर पाई.. मुझे वो उस दुनिया की लगी, जहां आपके लिए करने और मरने वाले तो बहुत है, पर आप केवल खुद के दम पर कुछ करने के लिए, उन अभी को परे धकेल, खुलकर जीना चाहते हैं.. हां, ये भी नितांत ज़रूरी.. क्योंकि जो मिल रहा है या मिल सकता है, उस से कहीं ज़्यादा आकर्षण न मिल सकने वाली चीज़ों की तरफ होता है.. और इस मुद्दे को लीला के किरदार में बखूबी दिखाया गया…
ये मूवी औरतों के उत्थान या प्रगतिशीलता पर ज़ोर देती कोई स्पीच नहीं है बल्कि मानवीय संवेदनाओं पर केंद्रित कहानी है, जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारने पर ज़ोर देती और स्वीकृत न होने पर विक्षिप्त होती भावनाओं को एक्सपोज़ करती हुई…
फिर से कहूंगी, ये मूवी किसी फाइव स्टार रेटिंग या हो हल्ले से परे, केवल व्यक्तिगत स्तर पर पसंद या नापसंद की जानी वाली चन्द फिल्मों से एक है.. बिना किसी अपेक्षा के देखिए, शायद अच्छी लगे.. अन्यथा इसमें हजम न किया जा सकने वाला मसाला भी है ही…
Anupama
Recent Comments