किसी ने कहा कविताएँ लिखी नहीं जाती,
वो तो बस महसूस की जाती हैं।
दिमाग की आंखें खोलकर देखो
निर्जीव वस्तुएं भी गाती नज़र आएंगीं
अच्छा, ये तो कुछ नया मिल गया।
हमने भी खोल ली बस की वो
छोटी सी खिड़की और
सड़क को ध्यान से देखने लगे
बिजली सी भागती कारें
उमड़ता घुमड़ता काला धुंआ
दूर तक जाता वो फ्लाई ओवर
मैट्रो के तेज़ी से भागते ट्रैक पर
खड़े जड़वत खंभे सचमुच
क्षितिज तक जाते दिखते हैं,
बादलों को भी नानी याद दिला दें।
और फिर वो लाल दीवार भी तो है
जो निरंतर साथ चलती है।
हां वही निर्जीव दीवार जो
अपने पीछे जाने कितनी
सुंदरता छुपाए बैठी है
पूछो न उन पंछियों से जो
गोल गोल उड़ते उसके पीछे
कहीं गुम हो जाते हैं
वो झूमते तरू बांहें फैलाए
मुझे ही बुलाते हैं
गुलमोहर के आग से फूल भरमाते हैं
कोयल की मधुर कूक
मोर के खुले पंख भी तो हैं
वहां का आसमां भी ज़्यादा नीला
बादल भी ज़्यादा गर्वीले हैं
अजी छोड़िए
निर्जीवों में क्या रखा है
हम तो सजीवों पे मर मिटे हैं
कितना ही रहे मुर्दों के बीच,
दिल तो अब भी ज़िंदों में ही अटका है।
Anupama
Recent Comments