Kuch Panne

कुछ पन्ने 1

मूरत से लगाव हुआ नहीं कभी.. नहीं, नहीं ऐसा नही कि भगवान में विश्वास नहीं…. है, प्रगाढ़ आस्था है और हो भी क्यों नहीं… कहीं सोची पढ़ी है ऐसी शख्सियत, जो सब कुछ खुद करने में सर्वथा समर्थ होने के बावजूद, आपको अपनी मर्ज़ी से सोचने, समझने, चलने, गिरने की पूरी आज़ादी देती हो.. कभी कोई ज़बरदस्ती नहीं, सब आपके कर्मों के ही हिसाब से.. हालाँकि ये बात और है कि कभी कभी इसी बात पर बहुत गुस्सा आता है उस पर.. चिल्लाकर कहती हूँ मैं नादान हूँ, तुम्हें तो सब पता है न, क्यों होने दिया वैसा, रोक नहीं सकते थे तब ही… ये बात और है कि शायद तब मैं सुनती नहीं, फितरत ही कुछ ऐसी ठहरी हम इंसानों की…

खैर, बात कर रही थी मूर्तियों की… मुझे जाने क्यों वो कभी परफेक्ट नहीं लगतीं, कम से कम उतनी नहीं, जितने मेरे भगवान खुद हैं… मंदिर में जाती हूँ, तो भगवान कम, मुझे वो उनकी तस्वीरें ज़्यादा लगतीं हैं, कैमरे की क्वालिटी, एंगल और फोटोग्राफर की स्किल्स के अनुसार ही अच्छी या बेकार खिंची हुई… एक ऐनालीटिक की नज़र से देखती हूँ और मन बरबस कह उठता है, कपड़े खूब हैं तुम्हारे, पर आँखों में भाव क्यों नहीं… हाथ थोड़े और बलिष्ठ बनने चाहिए थे, नाक थोड़ी और ऊंची, माथा इतना सपाट क्यों बना दिया भला, तुम्हारी तीसरी आंख उभरकर क्यों नहीं आ रही, वगैरह, वगैरह…

कई बार वे मुस्कुरा देते हैं और कभी आँख मारकर कह देते हैं, तू अपनी सोच, दूसरों में कमियाँ न ढूँढा कर… और मैं हामी भर उनका हाथ पकड़, जैसे मंदिर में गयी थी, वैसे ही बाहर चली आती हूँ…

मेरे लिए वे भाव हैं, जिन्हें ढाल पाना संभव ही नहीं.. हाँ, कभी मन्त्रों में उनकी हल्की सी झलक मिलती है.. ध्वनि की गति प्रकाश केे मुकाबले धीमी सही, पर दिल की फ्रीक्वेंसी से कहीं ज़्यादा मैच करती है… शायद इसलिए जो भाव देखकर नहीं उपजता, सहसा ही सुनकर मन को आंदोलित कर जाता है… कुछ साल पहले किन्हीं क्षणों में पूसा रोड के एक मंदिर में ऐसा ही महसूस किया था, दिल की धड़कनें शंखनाद और मंगल ध्वनियों से एकाकार हुईं थीं… हालाँकि दुबारा वहां भी ऐसा नहीं महसूसा कभी, शायद उस दिन कोई खास आयोजन था, ख़ास पूजा थी या फिर कौन जाने मन की स्थिति कुछ और…

वैसे भी, कभी ध्यान दीजियेगा, जब आप हाई वॉल्यूम पर संगीत लगाकर उसकी लय में बिल्कुल रम चुके हों, और यकायक वो थम जाए, तो उस मौन की तासीर कुछ अलग ही होती है, एकदम से जैसे सब रुक गया हो, असीम शांति… बस वही, वही सिद्धान्त है ध्यान, पूजा, कीर्तन का भी.. जो हम अक्सर पकड़ नहीं पाते.. खासकर मैं, मेरा दिमाग खुद में ही उलझा जो रहता है, किसी और की सुने भी कैसे… खैर जो भी हो, एक बात भरपूर समझ आती है कि उसकी उपस्थिति किसी मूरत किसी नियम, किसी कायदे की गुलाम नहीं… वो गाहे-बगाहे खुद ब खुद आपको अपने होने का अहसास करवा ही देता है… बस, समर्पण की आवश्यकता है और अब मैं थक चली… मेरी करनी भी समझाए, सुलझाए अब वो ही…
Anupama
#kuchpanne

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