जाना तो हम सबको है… इहलोक से छूटते ही, हम इस संसार और देह की सीमाओं से परे भी हो जायेंगें.. केवल हमारे कर्म निर्धारित करेंगें कि हम अपनी अनुपस्थिति में भी यहां उपस्थित रह पाएं या नहीं…
सृजन मानव मात्र का अधिकार है.. पर ये केवल देह से देह की उत्पत्ति तक सीमित नहीं.. अक्सर हमारे बाद भी नामलेवा के रूप में कुछ बचा रह जाता है, तो वो हैं स्मृतियां… शब्द, कला, संगीत, आख्यान… जाने के बाद भी गूंजा करते हैं.. रचनात्मक सृजन की मशाल सदियों तक, दुरूह जीवन पथ पर चलते रहने की प्रेरणा देती है… अनदेखे अबूझे प्रभाव कहीं ज़्यादा असर जो रखते हैं..
कभी जब टैगोर, प्रेमचन्द, काफ्का, तोलस्तोय, फ्योदोर को पढ़ती हूं.. नेरुदा, डिकिंसन की कविताओं में डूबती हूं.. Beethoven, Gogh को महसूस करती हूं.. तो अचानक उनके यहां होने के अहसास से भर उठती हूं.. यूं लगता है मानो इन सबकी आत्मा का कोई अंश, इनकी ऊर्जा का कोई पुंज, मुझमें भी सांसें ले रहा है.. वैसे भी करीब होना, पास होने का मोहताज कहां….
कृष्णा सोबती जी के किरदार, उनका रचना संसार, आने वाले समय में भी उनकी उपस्थिति का अहसास, हम पाठकों को यूं ही करवाते रहेगें… जाना प्राकृतिक है, और मन में रह जाना सबसे प्यारी उपलब्धि…
नमन आपको, आपकी प्रतिभा को
Anupama Sarkar
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