Fiction / Fursat ke Pal

कराह

अगर नदी बोल पाती तो शायद कराह उठती, अपने बंटते किनारों की किस्मत पर। आंसू बहाती उन शैतानों के अलगाववादी इरादों पर, जो इस पार और उस पार में इंसानियत भूल जाते हैं। कोसती उस पल को जब राम नदी पार वन चले जाते हैं, मानवता को मझधार में छोड कर। कसकर दामन पकड लेती उस सोनी का, जिसे अपने ही डूबने पर मजबूर कर देते हैं। चिहुंक उठती उन लाशों की सडांध से, उस दुर्गंधित कचरे से, जो उसके पारदर्शी कोमल बदन को पल-पल छलनी करते हैं। चीख-चीख कर अपने दम घुटते अस्तित्व को बचाने की गुहार लगाती। काश! वो बोल पाती! पर सच में ऐसा होता तो फिर नदी, नदी कहाँ रहती, सैलाब बन जाती अश्कों का। अच्छा हुआ, नदी नहीं बोलती, चुपचाप बहती रहती है, पल भर को पांव डुबो राहगीर सुकून तो पाते हैं..

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