कागज़ के पुर्ज़े
काले नीले करते
चमक उठतीं थीं आँखें
अब एक गहरी उदासी है
बेरंग मछलियां छटपटाती हैं
सिसकियां किनारों से टकरा
अपनी ही अनुगूंज में खो जातीं हैं
झील धुंधली हो चली
प्रतिबिंब झलकते नहीं
गर्म हवा के बगूले सरसराते हुए
करीब से गुज़र जाते हैं
साँसें दो पल को थमतीं हैं
भीतर की कुलबुलाहट
बाहर आने को तड़पती है
पर दम घोंटती चींख
कलम बींध नहीं पाती
शब्द बेमौसम की बरसात से
बरसते हैं पर भिगो नहीं पाते
मौन का कोलाहल भयंकर हो चला !
Anupama
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