Fursat ke Pal

कोहरा

सुबह के आठ बजे कंपकंपाते हाथों से दरवाज़ा खोला ही था कि सामने नजर आई कोहरे की झीनी सी चादर। धुंधला, स्याह, दमघोंटू धुआं नहीं, झक्क सफेद मखमली-सा अहसास, ज्यों वो रूई से बादल आसमां से चोरीछिपे तारकोल की सड़क पर खेलने चले आए हों। थक गए हों शायद उडते-उडते, तैरने का मन हो आया हो। वैसे भी रोज के रूटीन से उकता तो जाते ही हैं हम सब भी। और फिर ये कोहरा तो भाता भी खूब है मुझे। दूर की चीजें नहीं दिखती न, वो पास वाला पार्क भी नहीं, सामने के अशोक पीपल भी नहीं। सब ढक छुप जाते हैं कहीं, सस्पेंस में तब्दील हो जाता है सारा समां, जैसे किसी मूवी का सेट हो, अनोखा, कल्पनातीत। और एक आस जगती है मन में कि शायद उस पार कुछ नया हो, कोई खूबसूरत कली, उडती तितलियां, चहकती सोनचिरैयां या फिर वो तिलस्म्मी इंद्रधनुष जिस पर सवार हो बादलों के पार चली जाऊँ मैं। उफ! ये सुबह का कोहरा और दिल्ली की सर्दियां, खेल खेल जाती हैं, इस मन के साथ और वो बहक जाता है, इन बर्फीली हवाओं संग। वैसे भी दिन भर की थकावट भरी भागमभाग से पहले ये रंगबिरंगी कल्पना ही बेहतर न!
Anupama

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