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किंडल बुक्स

बचपन से ही चाव रहा पढ़ने का.. मम्मी की लाई कॉमिक्स हों, नन्दन, चंपक, सुमन सौरभ हो या कादम्बिनी और सोवियत नारी.. हर बार कुछ नया ढूंढ लेता था मन और मैं भाव विभोर हो उन कहानियों को अपने दोस्तों को जस का तस सुनाने बैठ जाती.. तब किसने लिखी, कहां पढ़ी, से कहीं ज़्यादा इस बात का ख़्याल रहता कि दिल को कैसी लगी!

कुछ बड़ी हुई तो टैगोर, शरत चन्द्र, तोलस्तोय की दुनिया से परिचय हुआ, तब तक भाषा शिल्प शैली से भी मन प्रभावित होने लगा था.. पर हां, तब भी और अब भी, दिल को कैसी लगी, मेरे लिए सबसे ज़रूरी बात रही.. नामी लेखकों की बहुत सी किताबें आधे में छोड़ दीं तो एकदम अनजान राइटर्स को डूब कर पढ़ा.. हिंदी में कुछ कम, अंग्रेज़ी में कुछ ज़्यादा, पर कहानियां तो कहानियां, भावों में डूबी रही..

दो रुपए में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का कार्ड बनवाकर जाने कितनी ही किताबें पढ़ीं.. फिर ऑनलाइन शॉपिंग और बुक फेयर के चलते भी ढेरों किताबें घर में आने लगीं.. धीरे धीरे कलेक्शन बढ़ा तो जगह की कमी और देखभाल की मुश्किल ने अपना सर उठाया.. कबाड़ी को देने का मन करता नहीं था, पर हारकर बहुत कुछ टके के भाव बेचा.. हालांकि एक कोशिश की थी, लाइब्रेरी में देने की, पर वो साधारण किताबों में इंटरेस्टेड थे नहीं और अमूल्य एडिशन मेरे पास नहीं थे.. सच कहूं, तब दुख हुआ था.. खरीदना, पढ़ना और फिर बन्द करके धूल में रखना या बेच देना, भाता नहीं था..

अब पिछले 4-5 सालों से एक प्रेक्टिस अपनाई है, किताबों को किंडल पर पढ़ने की.. ऑफिस जाते हुए, कोई paperback नहीं बल्कि फोन पर पढ़ती हूं.. घर आकर टैबलेट पर या फोन पर ही कंटिन्यू करना और जहां जो वाक्य पसंद आया, उसे हाईलाइट करके या टाइप करके सोशल मीडिया पर share करना, धीरे धीरे आदत में शुमार हो चला है.. अब बहुत चुनिंदा किताबें खरीदती हूं, बाकी सब वहीं किंडल पर.. 169 रुपए महीने के खर्चे और amazon prime की बदौलत Kindle पर 10 किताबें मेरी लाइब्रेरी में हर वक़्त इठलाती हैं!

जब अपनी किताब (जनवरी में Don’t Hate The Don’ts) और (जून में फ़ुर्सत के पल) पब्लिश की, तो भी वहीं kindle पर.. आख़िर जानी पहचानी मंज़िल ही तो खोजते हैं हम सब..

और फिर खरीदने में बेहद आसान है , सिर्फ ऑनलाइन पेमेंट करके, डाउनलोड ही तो करना है.. और पढ़ने में भी मुश्किल नहीं.. आते जाते, खाली वक्त में जैसे एफबी पर पोस्ट्स पढ़ीं, लगभग वैसे ही किताब भी पढ़ी.. आजकल के व्यस्त जीवन में खरीदने और पढ़ने के लिए अलग से समय निकालना भी तो दूभर ही हो चला.. और फिर physical books की तुलना में तो ebooks की कीमत भी बहुत कम..

हालांकि एकदम फ्री किताबों की पक्षधर नहीं हूं.. मेरा मानना है कि जो किताबें खरीदकर पढ़ी जाएं, उनकी तासीर ही अलग होती है.. पर वहीं बहुत ज़्यादा कीमत रखने के पीछे की मंशा भी मुझे कम ही समझ आती है.. सो मेरे लिए तो 49, 99, 149 में मिलती किताबें मानो मुंह मांगी मुराद.. न दिल पर बोझ न जेब पर.. और अगर प्राइम मेंबर हों तो जितना मन में आए, बस उतनी ही पढ़ो, फिर एक नई वाली, आखिर ज़बरदस्ती तो इस मन को कतई नहीं भाती न!

जीवन के हर मोड़ पर शब्दों से मुलाकात कुछ अलग ही रही है.. पर हर बार, उतनी ही भाव विभोर हो उठती हूं, जितनी कभी बचपन में हुआ करती थी.. बस अब लेखक का नाम याद ज़रूर रहता है, उनके लिखे से अपनापन उनसे भी जोड़ देता है न! अनुपमा सरकार

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