ख़ुशी
ये खुशी भी न बड़ी मनचली है। जितना इसे हासिल करने की कोशिश करो, उतनी ही तेज़ी से दौड़ जाती है। आपको हंसी की वजह देने के बजाय आप पर खिलखिलाती, मज़ाक उड़ाती सी नज़र आती है। जानती है न कि इंसान भोले मन से मज़बूर है दुखों की लाठी टेकता, टकटकी लगाए हर पल, इसका इंतज़ार करता रहेगा।
पर ज़रा गौर से सोचिए तो सही कि ये खुशी आखिर इतना इठलाती क्यों है। इसीलिए तो कि दुख की सहेली है। बेचारे गम न हों तो दुनिया से इसकी हस्ती ही मिट जाए। हर पल सुकून से जी लिया तो क्या खाक कद्र होगी इस क्षणभंगुर चितचोर की। तिस पर ये अकड़ कि आएंगीं तो खुद के जाने का डर भी साथ लाएंगीं। मतलब जो दो पल मिले हैं हंसी-खुशी, वो भी ये सोच ही गंवा बैठो कि देवी जी रूठने वाली तो नहीं। हद है कलयुग की। पाप-पुण्य का बहीखाता तो ऊपर वाला जाने, हम तो ईर्ष्या, द्वेष, खुशी, गम के गणित में ही उलझे बैठे हैं। कभी एक पलड़ा भारी होता है, कभी दूसरा और बेचारा मन, दोनों के बीच भाग-भाग कर संतुलन बनाए रखने की नाहक कोशिश करता रहता है। आखिर, जो इक दूजे से इतने अलग हों, उनमें समन्वय बैठे भी कैसे?
पर, कुछ भी कहिए, खता इस मन की भी नहीं, है तो ये खुशी प्यारी सी ही। जब मुस्कुराती हुई जीवन में कदम रखती है तो स्वर्ग का अहसास होने लगता है। बेसुरा भी तरन्नुम में गाने लगता है। समां मदहोश और ज़ुबां खामोश हो जाती है। वैसे भी हंसते हुए के साथ जग हंसता है। रोते हुए को ढांढस बंधा चुपचाप पतली गली से निकल लेता है।
आखिर, इन्फेक्शन तो है ही सुख-दुख भी। जाने कौन सा वायरस कल इसे डस ले। सो जब तक है, जी लेते हैं, इस खुशनुमामाहौल में। रोने के लिए कंधा ढूंढने से कहीं आसान है, ठहाके मारकर मस्ती करते हुए, ये चार दिन बिता देना।
तुमने सुन लिया न खुशी !
Anupama (Published in Mantvya 2)
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