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कभी अख़बार मेरे दिनचर्या का ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था.. गर्म चाय की चुस्कियों संग जितनी ज़रूरत मीठे रस्क की लगती, उतनी ही तेज़ तलब खबरों की भी हुआ करती… घड़ी के काँटों पर पैनी नज़र जमाए हुए, मैं बेतरतीबी से अखबार बिखेर, झटपट हेडलाइंस बांचती… दफ्तर पहुंचते ही कॉलीग्स के साथ चाय का एक छोटा सा दौर और वही दो चार ताज़ी खबरों पर बातें.. पर फिर कुछ बदलने लगा… ज़िन्दगी की दौड़ धूप कागज़ी जुमलों पर भारी पड़ने लगी.. एक पाँव किचन में और एक पाँव ज़बरदस्ती बिस्तर पर जमाए, नाश्ता बनाना और खाना दोनों ही प्राथमिकता की लिस्ट में सर्वोपरि स्थान घेर बैठे.. तिस पर फेसबुक पर लिखने-पढ़ने की आदत ने वक़्त पर थोड़ा और कब्ज़ा जमाया और अखबार से नाता छूटता चला गया.. हाँ, कभी कभी सुडोकु को मिस ज़रूर करती थी.. और क्रॉसवर्ड और jumbled words को व्यवस्थित करने की तीव्र इच्छा भी जाग जाती थी.. लिहाज़ा, कुछ समय पहले, मैंने फिर से समाचार पत्र से दोस्ती करने की ठान ली.. रोज़ाना नहीं तो कभी कभार ही सही.. सुबह समय नहीं तो, शाम को ही सही… मन को समझाया, एक नज़र तो ज़रूरी है.. वैसे भी बदलते संसार की खबरें रोमांचित न भी करती हों, कम से कम पढ़े लिखे होने का मुग़ालता तो दे ही जाती हैं… पर जानते हैं अभी अभी इन कागजों ने मन को बहुत ज़ोर से झिंझोड़ा है… दिल्ली का एक गरीब अपनी पत्नी की लाश को, नेचुरल डेथ साबित करने की उम्मीद में रात भर भटका है… मच्छरों और गंदगी से मौत के रिश्ते पर राजनीति हुई है… किसी बला की खूबसूरत ने, ठुकराए गए प्रस्ताव का खामियाजा एसिड पीकर चुकाया है… कहीं फिर आगजनी हुई.. कहीं फिर पत्थर चले हैं.. और मैं दिन भर की थकन को चाय की चुस्कियों और अखबार की कतरनों के बीच डुबोने में बुरी तरह असफल हुई हूँ.. ये खबरें बासी होकर भी दिल में शूल सी क्यों चुभती हैं.. शायद बुलबुली कविताओं का संसार, इन उदास चिड़ियों से कहीं बेहतर…
Anupama

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