जानते हो ये दुनिया अब अच्छी नहीं लगती मुझे.. अकेली हो गई हूँ.. थी तो पहले भी पर तब महसूस नहीं होता था… दबा दीं थी भावनाएं.. उन पर मुट्ठियाँ भर भर मिट्टी डाली थी… दफन कर दिया था जज़्बातों को.. ख़्वाबों का गला घोटकर संकरी शीशी में कैद कर के समन्दर में फेंक आई थी.. हाँ, कभी कभी उभर आते थे कुछ ज़ख्म.. जाने अनजाने सिसकियां छूट भी जातीं थीं.. पर मैं उन्हें छुपा देती थी मुलायम तकिये के सख्त आगोश में.. उसकी ख़ुश्क गलबहियां मेरे अकेलेपन को सुकून देतीं थीं.. एक एहसास कि अकेली मैं ही नहीं…
शायद तुम कहो कि नकारती थी मैं असलियत.. मेरी दुनिया हमेशा से उतनी ही खोखली और नकली थी जितने वो रंगबिरंगे बुलबुले, जो पल भर की उड़ान में ही दम तोड़ देते हैं… पर जीने के लिए वजह ज़रूरी है न.. फिर चाहे वो कोरे सफहों पर आढ़े टेढ़े खाके खींचना ही क्यों न हो…
Anupama
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