आज एक नयी कहानी सुनायी उन्होंने.. किसी मंदिर की मान्यता के बारे में… कि कैसे एक औरत शादी के 30 साल बाद मां बनने का सुख पा सकी… और अपनी मुराद पूरी होने पर घुटनों पर बच्चों सी रिढ़ते हुये मन्दिर के द्वार पर माता का धन्यवाद देने गयी…
मैं सुनती रही, गुनती रही… कैसे और कितने प्रकार के दुःख हैं इस जीवन में… शारीरिक, मानसिक, भौतिक, लौकिक…. हर तरह की मजबूरियां… किसी को नौकरी के लाले, किसी को शादी ब्याह में दिक्कत, कहीं पारिवारिक कलह, कहीं दफ्तर के झमेले, कभी खुद बीमार, तो कभी बच्चों और माता पिता की चिंता… तनाव, चिढ़, टीस, दर्द… हर वक़्त, हर जगह, कोई न कोई दुःख, कोई न कोई दर्द, साये सा पीछा करता है इंसान का…
मानो कोई कील गढ़ी हो पाँव में… हम सबके, हर एक के पाँव में… शरीर, मन, आत्मा सब त्रस्त…. चेहरे पर मुस्कान पर भीतर कितनी पीड़ा… उफ़्फ़्फ़….
कभी सोचा करती थी कि ये पीड़ा होती ही क्यों है… क्या किया मैंने या उसने, जो ये सहना पड़ रहा… क्यों कोई स्त्री बाँझ का ताना झेलते टूटने लगती है और कोई बच्चे जनने की मशीन बन रह जाती है… क्यों कोई पुरुष एक नारी के प्रेम में खुद को तबाह कर लेता है और क्यों कोई पुरुष कितनी ही स्त्रियों में भी अपने प्रेम की महीन रेखा नहीं खोज पाता… क्यों कोई बच्चा पैदा होते ही अपने माँ बाप को खो देता है और क्यों कोई बच्चा, ताउम्र उनके सानिध्य में रहते हुये भी कोई सुख नहीं पाता… क्यों किसी के पास अपार दौलत है, पर सुकूँ नहीं.. क्यों किसी को फ़टे कपड़ों में खुले आकाश के नीचे सोना है… क्यों किसी को आलीशान बंगले में घुट घुट कर रोना है….
क्यों, क्यों, क्यों….
तड़पती थी कि क्या सबका न सही, कम से कम अपनों का दुःख कम कर सकती हूँ… क्या खुद की हस्ती मिटा, किसी को जिला सकती हूँ.. क्या दूसरे के आंसू पी, उसके होंठों पर मुस्कान खिला सकती हूँ…
नहीं…. ये सोचना ही गलत है…
धीरे धीरे समझने लगी हूँ… जिसे अब तक कील समझकर, मदद का नाम देकर, औरों के पाँव से बाहर खींच लेने का प्रयास करती थी… अब जानने लगी हूँ कि दरअसल वो उनके जीवन की धुरी है… कालचक्र के पहिये का एक ज़रूरी सामान… उस कील के निकलते ही समय रुक जायेगा… अब तक भोगा, अब तक सीखा, सब मिट जाएगा… फिर शुरुआत से उन्हें वही सब झेलना होगा.. सुधार नहीं, दिक्कत बढ़ा देती है किसी की अति सांत्वना… इम्बेलेन्स्, केओस, मेस्स क्रिएट करते हुये… शायद वो दुःख, वो पीड़ा, वो दर्द, अवश्यम्भावी है… कुछ सिखाने आया है और सिखाकर ही जायेगा…
हम सब अपनी अपनी यात्रा में हैं… अलग पड़ाव, अलग पथ, अलग परिस्थितियां.. बहुत कुछ एक जैसे होते हुये भी, पाठ और परिणाम बिल्कुल पृथक… शायद इसीलिये उपाय भी खुद को ही ढूंढने हैं… मंदिर में नाक रगड़ती वो गाँव की महिला, चिकित्सा का सहारा लेते शहरी दम्पत्ति या किसी अनाथ को गोद लेते कोई सहृदय इंसान… जैसे एक ही समस्या के ये तीन निवारण, वैसे ही हमारी अपनी अपनी कीलों के भी अपने ही ईलाज… यात्रा है जीवन, बिन चले कटेगा भी नहीं …..
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