अक्सर कविताएँ पढ़ते हुए
शब्द विन्यास से परे हो जाती हूँ
भावों के उतार चढ़ाव
पहाड़ी से तलहटी का सफर
तय करते हुए
ह्रदय तल पर एक दावा ठोंकते हैं
पल भर को ठिठकती है नज़र
दो धड़कनों के बीच सरसराहट सी होती है
आँखों के रास्ते मन के भीतर
उमड़ते हैं कुछ वाजिब नावाजिब ख़्याल
पर तभी दिमाग दस्तक दे जाता है
झट आह वाह उफ़्फ़ लिखकर
उन असंख्य विचारों को एक रेले में धकेल
आगे बढ़ जाती हूँ दूसरी कविता की ओर
ये छोटी छोटी पुलियां
प्रदूषित महानगर की
उखड़ी साँसें हैं,
क्षण क्षण जीने का प्रयास करतीं !!
Anupama
The tragedy of thinking from Heart
Mind hammers the intruder Hard 🙁
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