Hindi Poetry

कविता

कविता गुलाम नहीं शब्दों की
ये तो भावों की सहचरी है
दिल की बांहों में बांहें डाल इतराती है
दिमाग की सरगोशियों से घबरा जाती है
घूमती है निडर हो आंखों के घेरों में
डर जाती है कलम की नोंक पे सजे शेरों से
पर अगले ही पल खिलखिला उठती है
जब मन को अपने पीछे भाव विह्वल पाती है
उड़ने लगती है उन्मुक्त आकाश में
थके से पंछी सी कागज़ के छज्जे पे बैठ सुकून पाती है
सच, न तो ये बंधती है सांकलों से
न किसी पूर्व निर्धारित सांचे में ढल पाती है
मेरी कविता तो है आज़ाद, पतंग सी ही
महीन डोर से बंधी, अंतरिक्ष की सैर कर आती है।

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