Fiction / Fursat ke Pal

वो कौन थी

आज फिर से उन्हीं गलियों से सामना हुआ। वही घूमती सड़कें, वही झूमते पेड़ और वही बूढ़ी अम्मां !

मेरा इस जगह से परिचय काफी पुराना है। एक समय था जब रोज़ यहाँ से गुज़रा करती थी। घंटे भर का सफ़र होता था घर से दफ्तर का। बस यूं ही ऊबती रहती, कभी बस से बाहर झांकती, उन्हीं रोज़मर्रा के पेड़ पौधों को निहारती तो कभी उचक के नए लगे होर्डिंग्स को चाव से पढ़ने की कोशिश करती।

पर उस दिन कुछ नया हुआ। मुझे अम्मां पहली बार दिखाई दीं। सन सफेद बाल जूड़े में कसे हुए, ढीला सफेद सलवार कुर्ता और मलमल का दुपट्टा ओढ़े, किसी आम दादी की तरह ही नज़र आ रही थीं वो।

पर बहुत अलग थीं सबसे। हाथ में एक बड़ा सा कपड़े का बैग पकड़ रखा था और कंधों पर एक भारी झोला। ऐसा लग रहा था मानो कहीं घूमने जा रही हों। लेकिन और लोगों की तरह उन्हें सीट पर बैठने की कोई जल्दी नहीं थी। चुपचाप ड्राइवर के पास खड़ी रहीं और तीसरे स्टाप पर उतर गई। मेरे देखते ही देखते उन्होंने रास्ता पार किया और वापस जाने वाली बस में उतनी ही शांत मुद्रा से चढ़ गईं।

उनका भारी भरकम सामान और अलग सा व्यवहार कुछ विस्मित कर गया मुझे। और उस दिन के बाद तो यह रोज़ का नियम ही बन गया। अम्मां रोज़ उसी नियत जगह से चढ़ती और तीसरे स्टाप पर उतर जाती, वही ढेरों सामान और मुख पर शांत भाव लिए। एक अजीब सा आकर्षण था, उन नेपथ्य को निहारती आंखों में।

कई बार मन हुआ कि उनसे बात करूँ। पूछूं कि माई तू क्यों यों रोज़ सड़क पर घूमती है, तेरा घर कहां है, रिश्तेदार कौन हैं और कुछ नहीं तो दो पल ठहर ही जा, ये बोझ ही कांधे से उतार, थम जा दो पल को, सांस ही ले ले ज़रा। पर कभी पूछ ही नहीं पाई। शायद मन में डर सा था कहीं उनके छिपे घाव रिसने न लगें, जो पीड़ा मन में दबी है, मवाद रूप में दिखने न लगे।

कायर थी मैं, खुद से डरती, लोगों की बातों पर झट से विश्वास करती। कई तरह की बातें होतीं उनके बारे में। कोई कहता दुखों की मारी है, बच्चों ने ज़ायदाद पर कब्ज़ा करके घर से बाहर निकाल दिया। रात को रैनबसेरे में सोती है और दिन भर बसों में यूं ही धक्के खाती है। तो दूसरा झट उसकी बात काटकर कुछ अलग ही कहानी सुनाता कि वो कोई मानसिक रोगी है, घर-बार अच्छा है पर ये खुद ही घर में नहीं टिकती, पगली है!

मैं इन सब बातों को चुपचाप सुना करती और उस अम्मां के शांत भावों के पीछे की असलियत पढ़ने की नाकाम कोशिश करती। बस कभी बात करने का साहस न कर पाई। समय बीतता गया। मेरा स्थानान्तरण हो गया और अम्मां का किस्सा कहीं परतों के नीचे दब गया।

पर आज सालों बाद फिर से उसी रास्ते पर जाने का अवसर मिला तो खुद ब खुद यादों से परदा हटने लगा और मेरी आंखें उन्हीं को ढूंढने लगीं। वो दिख भी गई, ठीक उसी जगह, उसी मुद्रा में बैठी। हां, बाल कुछ हल्के हो गए थे और चेहरे पर झुर्रियां कुछ ज्यादा।

वही शांत चित्त फिर एक बार झकझोर गया। पर आज मेरे मन के विचार कुछ अलग थे। उन्हें देख लगा कि ये पगली नहीं, बस यही तो एक समझदार है, मन के बोझ को तन के बोझ से दबा दिया है और घूम रही है अनवरत् एक भंवरे की तरह कि उड़ेल दे किसी काबिल जगह।

दृढ़ निश्चय किया मैंने कि आज चुप नहीं रहूंगी, उनसे बात करके रहूंगी। पर ये क्या बस तो चल पड़ी और वो स्टाप से उठी ही नहीं!

मैं हैरान थी। बदहवासी में कूद पड़ी बस से, भागते हुए पहुँची उनके पास, जैसे ही हाथ लगाया वो ढुलक गई ! मानो मेरे छूते ही विदा हो गई, जैसे कोई पानी का बुलबुला थी नाज़ुक अंगहीन, मानो मेरे कठोर स्पर्श से सफेद हो गया वो कैनवस जो था कभी रंगीन!

लोग फुसफुसा के कह रहे थे आखिर पगली मर गई और मैं जड़वत खड़ी सोच रही थी कि शायद पुण्यात्मा थी, सांसारिक चक्रव्यूहों से आज़ाद हो गई!

न जाने कौन थी वो?
Anupama

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