कल रात आंगन में चक्कर लगा रही थी। खरबूजे सा चांद अशोक के ठीक पीछे से झांक रहा था जैसे मुझे न्योता दे रहा हो, आसमान में आने का, धीमे-धीमे बादलों की सीढ़ियों पर पांव रख गुरु को कनखियों से देख, उसकी समझ-बूझ को खुद में बसाने का। कैसा धुला-धुला सा चांद और कैसा ऊबड़-खाबड़ सा आसमां, हिम्मत ही न कर पाई दोनों के बीच जाने की। बस चुपचाप चक्कर काटती रही, खुद से उलझती सुलझती।
यकायक ज़ोरों की गड़गड़ाहट हुई। चौंक कर देखा, चांद नदारद था और आसमां स्याह मखमली!
अचानक लगा चांद किसी मुसीबत में तो नहीं। मुझे उसने पुकारा और मैंने अनदेखा कर डाला। अब फिर कभी न दिखा तो क्या कर पाऊंगी, यूँ ही हमेशा के लिए गायब हो गया तो क्या सह पाऊंगी। मैं भी न, बहुत मतलबी हूँ, सिर्फ अपने लिए जीती हूँ, किसी और का सोच ही नहीं पाती।
सोचते हुए आंसू ढुलकने लगे, और मैं उन्हें कनखियों में छुपाए भीतर भाग आई। चादर सिर तक ओढ़, खुद को आवरण में छुपा, बुलबुलों में खोने का प्रयास करते कब आंख लग गई। पता ही नहीं चला।
सुबह चार बजे कोई हल्के से बुदबुदाया, शायद सूरज जग गया था, बादलों को भगा चांद को छुड़ा लाया था और अब हौले से उसे लोरी सुना प्यार जता रहा था। शर्माया सा चांद उनींदी अंखियों से सूरज को निहार रहा था, उसके कंधों पर सर रख सितारों की दुनिया में खोया सा।
हैरान थी मैं इस जोड़ी को देखकर। कहाँ आग बरसाता अड़ियल सूरज और कहाँ नेह टपकाता मासूम सा चांद! ज़मीन आसमान का न सही, दिन रात का फर्क तो था ही दोनों में। सोचने लगी, क्या सचमुच वो तपता सूरज यूँ शीतल भी होता है। लुकीछिपी सी वो नरमाहट जो बस किसी एक के लिए, वो कहीं अंदर, बहुत गहरे दबाए बैठा है। हाँ, हो भी सकता है। तस्वीर के दो नहीं, कई रूख होते हैं, पिछले कुछ दिनों ने बतलाया था। सो अचरज कैसा। बस, मैंने नज़र भर दोनों को देखा, हल्का सा मुस्काई और पलट कर सो गई।
जब जगी तो सूरज अपने तेज पर था और चांद गायब! बस फर्श पर नमी बाकी थी। बादलों से घमासान युद्ध अपनी निशानियां छोड़े बैठा था। कल रात कुछ तो हुआ था!!अनुपमा सरकार
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