टैगोर की कहानियां जब भी पढ़ीं, लगा वे कहानी नहीं, एक पूरी दुनिया रचते हैं.. किरदार, आसपास का वातावरण, उसके संस्कार और क्रियाकलाप, सबका एक विस्तृत फलक.. शायद इसीलिए मुझे उनकी कहानियां अक्सर छोटे छोटे नाटक लगे, जिन्हें स्क्रीनप्ले में बखूबी ढाला जा सकता है…
शरतचन्द्र की कहानियां, अलग ही सोपान, हमेशा लगा कि उनकी कहानी की दुनिया किसी न किसी मोड़ पर अटकी हुई है, कोई एक ऐसी घटना, जिस से उबरना और पार पाना सम्भव ही नहीं.. और इसके लिए जिम्मेदार उनके किरदार का कोई fatal flaw, एक ऐसी कमी या यूं कहें कमजोरी, जिसकी वजह से ज़िन्दगी अगर किसी ढर्रे पर चल दी, तो फिर वापसी नहीं..
और इसके ठीक विपरीत मंटो, प्रेमचन्द और आर के नारायण की कहानियां, जो ज़िन्दगी के हादसों, गलतियों, मुस्कुराहटों और तकलीफों के छोटे छोटे गुलदस्तों में बंधी हुई, फूलों की खुशबू, कांटों की चुभन साथ लिए…
शरत दा की कहानियों के बारे में अक्सर लगा कि वे अपने किरदारों को ग्रो नहीं करने देते.. एक बार किसी से कोई गलती हो गई, तो बस पछतावा ही बाकी रह जाता है, कोई माफी नहीं, दूसरा कोई चांस या नज़रिए में बदलाव भी नहीं.. मैंने पहले पहल उनकी कहानियां जब पढ़ीं तो इंप्रेस नहीं हुई थी.. पर फिर उनके उपन्यास पढ़े श्रीकांत, देवदास, परिणीता, चरित्रहीन और तब उनकी range कहीं बेहतर लगी, बंगाल के बारे में जानना हो तो उनके उपन्यासों से बेहतर कुछ नहीं.. पर fatal flaw वाली थिअरी कायम रही, शायद वही उनका स्टाइल है या फिर अपनी ज़िन्दगी से जुड़ा कोई गिल्ट..
रही बात रबी दा की तो उनके उपन्यास खज़ाना हैं… दर्शन , मनोविज्ञान और सामाजिक व राजनैतिक तंत्र के बारे में.. गोरा, चोखेर बाली, योगायोग… अलग परिदृश्य, अलग विषय और उन्हें बांधते हुए टैगोर.. उनकी कहानियों में विस्तार की गुंजाइश हमेशा रही.. शायद वे चाहते तो उन्हें उपन्यास का रूप भी से सकते थे.. पर उनके पास सृजन के लिए इतना सामान था कि शायद उसके लिए एक और जन्म भी काफी न हो…
प्रेमचन्द जी के भी उपन्यास मुझे उनकी कहानियों से कहीं ज़्यादा प्रभावित करते हैं क्यूंकि टैगोर की ही तरह उनका भी फलक बेहद विस्तृत है.. कहानी में पूरा समाता नहीं, कसक छूट जाती है.. निर्मला व गोदान खासे लोकप्रिय हुए पर मुझे जो मज़ा कायाकल्प पढ़ने में आया, वो उतना और कहीं नहीं… नाम के अनुरूप ही उनके हर किरदार का इस उपन्यास में कायाकल्प हो जाता है, ज़िन्दगी से कदम मिलाते हुए…
मंटो की कहानियां बहुत कम पढ़ीं मैंने.. अंदर तक हिला देते हैं वो.. टोबा टेक सिंह, खोल दो, ठंडा गोश्त और बू.. आज तक मेरे ज़ेहन में घूमती हैं.. जीवन की कड़वी सच्चाई वो इस तरह खोल कर रख देते हैं कि मुझे उन्हें पढ़ने का साहस जुटाना पड़ता है, सहज नहीं रह पाती..
और उनसे ठीक उलट हैं आर के नारायण, अपनी मालगुडी के लिए मशहूर इस अंग्रेजी लेखक को शायद मैंने अब तक सबसे ज़्यादा पढ़ा है.. उनकी कहानियां और उपन्यास मुझे जाने पहचाने लगते हैं.. Salt and Sawdust हो या Under the Banyan Tree या फिर The English Teacher.. उनके अंदर का लेखक किरदार में साफ नज़र आता है और पाठक को अपने साथ जोड़ लेता है…
लाखों कहानियां हैं, लेखक भी हज़ारों.. हर लेखक की अलग शैली व सोच.. पर फिर भी कुछ जुड़ा हुआ.. सीधे हम सब से कनेक्ट होता हुए… मन की पोटली है ही गज़ब, हर बार कुछ नया निकल आता है, अचंभित करता हुआ…
Anupama
Recent Comments