आज मेरी बस चौराहे के बिल्कुल पास खड़ी थी
समीप ही कबूतरों की पूरी टुकड़ी
बिखरे दाने समेटने में जुटी थी
स्लेटी काया नीला कंठ बटन सी आंखें
गहरे गुलाबी छितराए से नन्हें नन्हें पांव
गर्दन मटकाते पंख फुलाते
ढुलमुल सी चाल चलते
भोले से कबूतर बड़े प्यारे लग रहे थे।
कभी बाजरा चुगते
कभी मकई पर चोंच साफ करते
अपनी ही दुनिया में खोए
अलसाई सी सुबह का पूरा आनंद उठा रहे थे
कुछेक शरारती पानी के बर्तन में
पंख फड़फड़ा बूंदें उड़ा रहे थे।
मोटे छोटे पतले तगड़े
कोई गमगीन तो कोई तबीयत से रंगीन
पूरी महफिल जुटी थी मेरे सामने
प्रकृति अनूठी सरगम गा रही थी
और मुझे ये कलाकारी बेहद भा रही थी।
यकायक कौवों का एक जोड़ा वहाँ आ गया
पानी का बर्तन ठोकर मार गिरा दिया
दानों पर कब्ज़ा कर आधिपत्य जमाने लगे
कबूतरों के ठीक बीच उतर
तीखी चोंच से धमकाने लगे
चौराहे की शांति भंग होने लगी
मीठी सी गुटुर गूं वेदनापूर्ण हूं हूं में
तबदील होने लगी।
मैं बैठी देख रही थी अवाक
प्रकृति का ये क्रूर स्वभाव
कमज़ोर एकजुट हो नहीं पाते
बलवान शक्ति प्रदर्शन से नहीं अघाते।
हर युग हर पल में एक
महाभारत खेला जाता है
चुपचाप देखते हैं पांडव
मासूम अभिमन्यु क्रूरता से
मौत के घाट उतार दिया जाता है
धर्मनिष्ठ की आस्था हर पल
कसौटी पर कसी जाती है
अधर्मता मदमस्त हो
उच्च अट्टाहस लगाती है।
क्यों होता है ऐसा, समझना थोड़ा कठिन है
क्यों हर पल ये संसार चोगे बदलता है?
क्यों मूक गवाह बनता है मानव त्रासदी का?
क्यों नहीं हथियार उठाता अराजकता के खिलाफ?
क्यों सह लेता है अन्याय असीमित दुख चुपचाप?
शायद इसलिए क्योंकि सिर्फ
अपनी बारी ही कसमसाता है
दूसरे के दर्द को तो
खिल्ली में उड़ा देता है
दूसरे के सुख से दुखी
अपनी ही कब्र खोदता है
ठीक इन कबूतरों की तरह
जो दो कौवों से ही मात खा बैठे
खो दिया हरा भरा चौराहा और
जा लटके बिजली की तारों पर!
Anupama
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