किसी वक़्त में एस्ट्रोलॉजी में बहुत इंटरस्ट था… इंटरनेट भी नया नया ही आया था उन दिनों… घंटों के हिसाब से पैकेज मिला करते थे, शायद मंत्रा सर्विस प्रोवाइडर हुआ करता था… मैं डेस्कटॉप पर बैठती तो इसी धुन के साथ कि जितनी जल्दी हो सके, relevant material ढूंढूं और डाउनलोड कर लूं, फिर घंटों बैठकर उसे बिना नेट खर्च किए पढ़ सकती थी।
अब सोचती हूं तो किसी और ही ज़माने की बात लगती है, पर उस वक़्त जानने का जुनून हावी रहता था और संसाधन मामूली। बहुत इधर उधर हाथ मारा, अधकचरा जानकारी भी हासिल की। उन्हीं दिनों कुछ आर्टिकल पढ़े थे, आकस्मिक मृत्यु और खासकर ग्रुप में मौत होने के बारे में। वे सब लोग जो एकाएक किसी हादसे का एक साथ शिकार हो जाते हैं, ट्रेन ऐक्सिडेंट, प्लेन क्रैश, तूफ़ान, भूकम्प, बाढ़, महामारी… उन सबकी मृत्यु एक ही साथ क्योंकर हुई, ये जानने की अजब उत्कंठा होती मन में… क्या उन सबके कर्म इस तरह बंधे थे कि साथ ही में निकल जाना बदा था या फिर एक साथ मृत्यु हो जाने से उनका कार्मिक बन्धन अब तय हुआ। जो भी पढ़ा समझा, उस से जिज्ञासा कभी शांत हुई नहीं।
पर आज, इस वक़्त में, जब मृत्यु हम सबके सिर पर तांडव कर रही है, तो बार बार वही सब दिमाग में घूम जाता है। कौन सोच सकता था इस साल की शुरुआत में, कि इंसान के मरने का सिलसिला इस तरह चलेगा? कोविड19 की शुरुआती रिपोर्ट्स पर मैंने तो कभी ज़्यादा ध्यान ही न दिया था, पर लगातार यह बीमारी कहर बरपा रही है। और हैरत इस बात कि जहां इसका प्रकोप कुछ कम, वहां कुछ और हुआ जाता है। असम, बिहार, केरल की बाढ़ और लैंडस्लाइड हो, केमिकल फैक्ट्री में रिसाव हो, शॉर्ट सर्किट से लगी आग हो, बेरुत में हज़ारों टन अमोनियम नाइट्रेट का एक्सप्लोजन हो, या एयर इंडिया के विमान का, वापिस लाते हुए यात्रियों संग रनवे पर क्रैश हो जाना और जिनके साथ कुछ और होने की आशंका न भी हो, उनका ख़ुद ही आत्महत्या कर लेना… अवसाद है, अदृश्य प्रभाव है, समय की करवट है, प्रलय की आहट है, क्या है ये?
कितना अजब वक़्त है ये, इस तरह नहीं तो उस तरह, काल का ग्रास तो बनना ही है, पर इतनी ज़्यादा तादाद में एक साथ, कहीं फिर कहीं कोई कार्मिक परिवर्तन क्रियान्वित है। ऐसे नहीं तो वैसे, कुछ न कुछ रोज़ घटित हो रहा है, और मैं, जो न्यूज़ देखना पढ़ना कब की छोड़े बैठी थी, अब ढूंढ ढूंढ कर पढ़ने में व्यस्त हुए बैठी हूं, ठीक वैसे ही जैसे कभी एस्ट्रो आर्टिकल्स पढ़ती थी। जानने की छट पटाहट तब भी तारी थी, अब भी… समझ तब भी न पाई थी, और अब भी अंधकार में ही हूं… पर इतना लगता है कि कहीं न कहीं तकदीर में बदा तो था ये सब, जिनको जाना है, उन्हें ले जाकर ही छोड़ेगा ये वक़्त… कहां, कैसे, बस वही नामालूम… अनुपमा सरकार
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