“दो कानों में एक सर कर देना है तेरा” वो आंखें दिखाकर कहतीं और मैं फ्राक का सिरा मुंह में डाल चुपचाप बैठ जाती, टुकुर टुकुर दीदी को देखती और उनके होंठों पर मुस्कान की झलक देख जोर से खिलखिला उठती। मामीजी भी उस हंसी में हमारे साथ शामिल हो जातीं, ये भूलकर कि दो मिनट पहले ही शैतानों को चुप कराने के लिए उन्होंने बड़ी चतुराई से एक प्यारा सा सच कहा था।
हाँ, ये झिड़की मीठी सी याद है मेरे बचपन की। ज्यादा डांट पड़ी नहीं कभी। शरारतें कम ही करती थी और जब पड़ जाती तो देर तक उसके बारे में सोचा करती। और एक दिन मेरे बाल मन ने दो कानों में सर का लॉजिक भी समझ ही लिया था। मन में आया स्कर्ट का कोना घसीटती हुई आंखें निकाल कर बोलूं ‘शर तो दो कानों में ही होटा है मामीजी, मैं किशी शे नई डरटी।’ फिर सोचा, छोड़ो परे, बड़ों का क्या भरोसा! कहीं दो सिरों में कान कर दिए टो!!
वैसे भी कानों से बहुत लगाव है मुझे। बिन सुने समझा भी कैसे जाए। गाना हो या मन की बात, ऐंट्री तो यहीं से है न 🙂 हाँ ये अलग बात है कि जब बात मेरे मतलब की न हो या फिर बहुत ज़्यादा मतलब की हो तो मेरी सारी श्रवण शक्ति हवा हो जाती है 🙁
खैर, अगर आप सोच रहे हैं कि ये सुबह सुबह मैं कानों का किस्सा क्यों लेकर बैठ गई तो जवाब बड़ा सिम्पल सा है। साथ वाली पार्क में कुछ जंगल बैबलर्स ने घर बसा लिया है। सुबह पांच बजे से शोर मचा रहे हैं। नींद डिस्ट्रब कर दी मेरी, इनकी चिकचिक झिकझिक ने। जाने कोई अरली मोर्निंग पार्टी चल रही है या संसद का सत्र जमाए बैठे हैं। ये पंछी भी न बिगड़ गए, इंसानों की संगत में। बस अपनी कहते हैं और खिसक लेते हैं। मुझ बहरी की कौन सुने!
वैसे, सुबह प्यारी है और मौसम दिलकश। मन तो मेरा भी हो रहा था थोड़ा सा चिल्ला लूं। सो आ गई यहाँ, एफ बी पर तो चलता है न 🙂
शुभ प्रभात 🙂
Anupama Sarkar
#fursatkepal
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