Fursat ke Pal

जुगनू

फेसबुक रोज़ पूछता है What’s on your mind? सोचा आज बता ही दें..

क्या है न दिमाग मैग्नेट है.. कील से लेकर एरोप्लेन तक खींचकर अपने सूक्ष्म तंतुओं में क़ैद कर लेने में पूर्णतया समर्थ.. जैसा सोचो, वैसा होता जाये.. फिल्म कुछ प्ले ही ऐसे होती है.. अभी अभी कहीं जुगनुओं पर एक प्यारी सी कहानी पढ़ी, दिमाग फौरन कलकत्ता के पास एक छोटे से कस्बे में पहुंच गया.. बचपन में गयी थी, चाचा के पास बिराटी.. चिढ़ाने को गाँव बोलती थी, पर था बहुत कुछ ऐसा जो मैंने ज़िन्दगी में पहली बार वहीं देखा.. शहरों में पलने बढ़ने का एक नुकसान आपके दृष्टिकोण का संकृत हो जाना है… भई जब आसमान ही साफ़ न दिखे तो प्रकृति की बाकी इकाइयों की तो बिसात ही क्या..

खैर, बिराटी में पहली बार मैंने ऐसे पोखर देखे, जिनमें मछलियां तैरतीं थीं, और अमूमन सुबह-सुबह ही कोई आदमी काँटा लगाये उन्हें पकड़ने की ताक में रहता… बंगाली होकर भी माछ नहीं खाती ? सो उनका पकड़ा जाना मुझे विचलित कर जाता, पर दूसरी तरफ उस इंसान के टैलेंट की भी क़ायल हो जाती.. इत्ती सी जगह, इत्ता सा काँटा, और दे दबा मछलियां ? शायद पानी अनुकूल था वहां का…

वैसे हवा पानी दोनों ही कुछ अलग थे उस जगह… कलकत्ता जाने को बस नहीं सिर्फ लोकल ट्रेन मिलती थी.. और वो भी काफी देर के बाद.. याद आता है कि एक दिन जब तक हम स्टेशन पहुंचे, ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी.. टिकट खरीदने जाते तो ट्रेन छूटने का खतरा था.. चाचा कहने लगे यूँ ही चढ़ जाते हैं, टीटी आया तो अंदर ही बनवा लेंगें वरना ?

पर पापा को मंज़ूर न था.. कुछ वक़्त कश्मकश में बीता, फिर हम सब सामने वाली बोगी में सवार हो गये.. अचानक देखा कि पापा तो सामने टिकट काउंटर पर खड़े हैं.. मेरी तो जान सूख गयी.. पापा वहीं छूट गये तो ?…. हरी झंडी दिखायी जा चुकी थी.. और मैं भगवान जी से मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि दो मिनट को ड्राइवर को लेट कर दो न.. आँखें खोलीं तो पापा सामने थे.. ट्रेन स्पीड पकड़ चुकी थी… उस दिन पहली बार लगा, जो मांगो मिलता है..

शायद मैंने कभी जुगनुओं से मिलने की इच्छा भी की थी, क्योंकि उसी रात घर लौटते हुए, सड़क किनारे, झाड़ियों में झिलमिलाहट सी दिखी थी… मानो दिवाली की लड़ियां बिना बिजली जगमगा उठीं हों… चाचा को हौले से पूछा था, ये क्या है.. वो बोले fireflies..बालमन ने सुना और समझ लिया ‘आग की मखियाँ’…. ज़रूर धुंआ भी उठता होगा.. फिर कई रातों तक मुझे वो हल्की रौशनी सपनों में महसूस होती रही… दिल्ली में कभी नहीं दिखे, दुसरे शहरों में जहां, घूमने जा भी पायी, वहां भी नहीं.. मेरे जुगनू वहीं मिले थे, फिर कभी नहीं…

वैसे जुगनुओं से याद आ रही है महाभारत की एक छोटी सी कहानी.. कहते हैं गांधारी को अँधेरे से डर लगता था, उसका भाई शकुनि उसके लिये जुगनू पकड़कर लाता था ताकि वो रात को आराम से सो पाये…

पर किस्मत का पलटवार तो देखिये, उसी गांधारी को सारा जीवन अँधेरे में गुज़ारना पड़ा.. कहते हैं हमारे डर अक्सर हम पर हावी हो जाते हैं.. न चाहते हुए भी हम उन्हीं त्रासदियों से गुज़रते हैं, जिनसे बेहद डरते हैं… वैसे ये बात सपनों के लिये भी सच है… जो सपने बार बार देखें जाएँ, उनके सच होने की सम्भावना ज़्यादा होती है.. कारण समझे? अरे वही, दिमाग मैग्नेट है भाई, खींच खींच लाता है अपने पास…
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और पूछो हमसे what’s on your mind खोपड़ी घुमा देंगें ज़ुकरबर्ग की ???
Anupama
#fursatkepal

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