Review

Jai Bhim, Movie Review

किसी मूवी को देखते हुए अगर बार बार फास्ट फॉरवर्ड का बटन दबाना पड़े तो उसे देखना बंद कर देती हूं, क्यों देखूं कुछ ऐसा जिसे देखना इतना मुश्किल लगे… पर कल देखी जय भीम, एक ऐसी मूवी, जिसने मन को इतना विचलित किया कि न देखे बिना रह पाई और न ही लिखे बिना!

यह फिल्म है आदिवासी समाज के साथ किए जाने वाले बर्बरता पूर्ण व्यवहार की, जिसमें पूरा समाज, जमींदार से लेकर गांव वाले और पुलिस से लेकर कानून के रखवाले बराबर की भूमिका निभाते हैं।

इरुला जाति, सांप के काटे का इलाज जानने वाले आदिवासी, जो चूहे खाकर अपना भरण पोषण करते हैं, गांव की सीमा से बाहर अपना घर बसाते हैं और जब तब किसी के आंख की किरकिरी बन जाते हैं, उन्हें और उनके कठिन जीवन की झलक दिखाती जय भीम, शुरुआत में ही वकील सूर्या (के चंद्रू) के इर्द गिर्द एक स्ट्रॉन्ग हीरो इमेज के साथ भागती हुई दिखी। फिल्म की गति तेज़ है, आपको बोर होने का मौका दिए बिना, निर्देशक तेज़ी से मुख्य पटकथा की ओर बढ़ते हैं।

मुख्य किरदार हैं राजा कन्नन और उनकी पत्नी सिंघिनी, जिनमें गरीब होने के बावजूद जीने की उमंग है, प्रेम है, दूसरों के प्रति सहानुभूति और ईमानदारी है। भट्टी की आग में तपकर किसी तरह अपनी पत्नी के लिए मंगलसूत्र खरीदने वाले राजा को, अपनी ईमानदारी ही भारी पड़ जाती है। शायद चोरी का झूठा इल्ज़ाम स्वीकार कर लेता तो पुलिस टॉर्चर से मारा नहीं जाता, इसे फिल्म की टैगलाइन कह सकते हैं क्योंकि लगभग सभी किरदार, चंद्रू और सिघनी के अलावा यही माने बैठे हैं। एक ऐसा समाज जो किसी जाति को चोर मानता हो, उसके लिए ऐसा साबित कर देना कितना आसान है, जय भीम देखते हुए बार बार महसूस हुआ!

इतनी बुरी तरह राजा और उसके परिवार की पिटाई की और दिखाई गई है कि मूवी देखते हुए रोंगटे खड़े हो गए और मैं बार बार फास्ट फॉरवर्ड का बटन दबाती गई, इस उम्मीद में कि इंसाफ तो होगा पर कैसे!

Habeas Corpus के केस से शुरुआत करते हुए किस तरह राजा और उसके परिवार को निर्दोष साबित किया जा सकेगा, इस पूरी कवायद को सूर्या के सहज अभिनय के साथ देखना इंटरेस्टिंग था और कहीं न कहीं एक उम्मीद भी कि कानून पूरी तरह अंधा नहीं है।

१९९५ के इस सच्चे केस और के. चंद्रू के जीवन और उनकी उपलब्धियों पर बनी इस मूवी ने समाज की विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया है। हालांकि फिल्म का टाइटल, सफलता पाने का शॉर्ट कट ज़्यादा लगा और चंद्रू के जीवन पर अंबेडकर का प्रभाव दिखाता डिस्क्लेमर, आफ्टर थॉट ही लगा, फिल्म में पूरी तरह उसे भुनाया न जा सका।

फिर भी मूवी, झिंझोड़ती है और सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर हम बिना भेदभाव के जीना और दूसरों को उनके रूप रंग, जात, धर्म पर जज करना आखिर कब बंद करेंगे!

हालांकि यह मूवी खुद भी इस जजमेंट से परे नहीं, सिंहनी को आदिवासी दिखाने के लिए हीरोइन को जबरदस्ती का डार्क मेकअप दिया गया, जो साफ़ झलकता रहा। सूर्या की हीरो इमेज को लार्जर than लाइफ दिखाने की बचकाना कोशिश की गई, जहां जज के फैसला पढ़ते पढ़ते ही वकील साहब उठकर चल देते हैं, आदिवासियों के जुड़े हाथों से सम्मान पाने, अजीब लगा। जब एक मूवी छोटे बड़े, ऊंच नीच, किसी को पूजने और किसी को दबाने की ही थीम पर हो तो फिर महिमा मंडन से बचने की भी पूरी कोशिश की ही जाए।

खैर इन सब बातों के परे, मूवी अच्छी है। के. चंद्रू जी ने सारी उम्र, शोषित वर्ग के पक्ष में लड़ते हुए बिताई है, ऐसे प्रोफेशनल बहुत कम हैं जिन्हें पैसा और नाम नहीं, सिर्फ़ अपने काम और समाज के प्रति लगाव हो। अच्छा लगा कि उन्हें इस मूवी के बतौर थोड़ा बहुत जान पाई… अनुपमा सरकार

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