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ईश्वर

कभी-कभी मन करता है बहुत कड़वा बोलूँ.. नकार दूं तुम्हारा अस्तित्व.. चींखकर कहूँ कि तुम्हारा दर्प मुझे दंश सा चुभता है.. तुम्हारा होकर भी न होना, मेरे आत्मविश्वास को खंड खंड कर देता है.. इच्छाओं की वेदी पर धू धू जलती साँसों से पिघल चुका है मन.. तन आत्मग्लानि की गहन निद्रा में प्रवेश करने को आतुर… स्वर घँटीकाएं अपना आकर्षण खो चुकीं.. नेत्रदीप, अंधकार की कन्दरा में जलती आत्मा का अंतिम प्रयास, विफल होता देख, हताश हो चले… निर्जीव मूर्ति में प्राण फूंकने का दावा करने वाली प्रभातफेरी अब तुम्हारे कानों तक नहीं पहुंचती.. बंद किवाड़ों के पीछे नैवेद्य का भोग लगाते तुम, किसी आत्महंता की करुण पुकार पर नहीं लौटते इस संसार में.. शुद्ध आचमन अशुद्ध आचरण से दूषित हो चुका.. तुम नहीं हो ईश्वर.. कहीं नहीं…

Anupama

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