कल किंडल पर अचानक नज़रेंं जा टिकीं, इक छोटी सी किताब पर.. महज़ 90 पेज में लिखी एक फेसबुक फिक्शन..
लप्रेक विधा में शहरी मुहब्बत का नमक समेटे रवीश कुमार की “इश्क़ में शहर होना”, मेरी स्क्रीन पर इठला रही थी..
और मैं अनायास ही जा पहुंची थी यादों के गलियारे में.. इस साल जनवरी में प्रगति मैदान में एक सर्द शाम में, पहली बार दिखे थे रवीश…ऊंचे कद काठी के गोरे चिट्टे हंसमुख व्यक्ति को फॉलोअर्स की एक छोटी सी भीड़ के बीचोंबीच, मुस्कुराते हुए, धीमी आवाज़ में किताबों की ज़ानिब कुछ कहते सुना था..
कुछ समय से टीवी से विमुख हूं, सो दो पल लगे थे पहचानने में कि ये वही तेज़ तर्रार एनडीटीवी के रवीश कुमार हैं, जिन्हें प्राइम टाइम पर देखना, रोमांच से भर देता था.. शायद वे किसी बुक लॉन्च के लिए वहां थे या फिर मेरी ही तरह किताबों के इश्क़ में डूबे थे..
खैर टीवी पर दिखते लोग, बेशक़ दिन रात आपके लिविंग रूम में आधिपत्य जमाए रखते हों, पर उनका आम रास्ते में दिख जाना, एक अलग अनुभूति छोड़ जाता है.. कुछ समय उन्हें देखकर, एक मुस्कुराहट लिए आगे बढ़ चली थी..
पर नहीं मालूम था कि वो छोटी सी मुलाक़ात, मुझे उनकी लेखनी तक ले आएगी.. सो कल देखते ही डाउनलोड कर बैठी “इश्क़ में शहर होना” और तकिए पर फोन टिका, पढ़ने बैठ गई..
रवीश के चिर परिचित अंदाज़ ने इंट्रो में ही बांध लिया.. एक सीधे सादे लड़के का गांव से पटना, और फिर दिल्ली चले आना.. कौतूहल के चलते गलियों में भटकना, शहर की मिट्टी में अपने अस्तित्व को खोजना और चुपके से गांव की खुशबू, मन में बसाए, महानगरीय कोनों में जीने की वजह ढूंढ़ लेना..
और फिर शुरू होना एक सफ़र.. लप्रेक का कारवां.. एक दूजे का साथ ढूंढ़ते प्रेमियों का लोधी गार्डन के घास भरे मैदानों से मालवीय नगर के मॉल तक चले आना.. कलकत्ते के पंडाल और नोएडा के मिलेनियम पार्क का चुपके चुपके अपनी उपस्थिति दर्ज कराना.. अन्ना के अनशन और खाप के विरोध का प्रेमी जोड़ों से बंधते जाना…
और इन सबके बीच लगातार, उस शख्सियत का मुस्कुराना.. बिल्कुल उसी मुद्रा में, कोहनी डेस्क पर, हाथ ठोडी पर, और चेहरे पर गंभीर भाव होने के बावजूद, आंखों में चमक और शरारत का कौंधते जाना… रवीश हर लप्रेक में साथ साथ नज़र आए…
इश्क़ में शहर होना, फेसबुक पर इंटरस्टिंग पोस्ट्स पढ़ने सरीखा ही था, जहां अक्सर लेखक नहीं, अपने हंसते मुस्कुराते दोस्तों को शब्दों से खेलते पाती हूं.. आम लोगों की आम ज़िंदगी से जुड़ी बातों को चटपटे अंदाज़ में परोसे जाना, एंकर के तौर पर रवीश की विशेषता है और वही उन्होंने इस किताब में भी अपनाया…
हालांकि लघु कथा लिखना आसान नहीं.. सीमित शब्दों में पाठक का ध्यान खींचकर, एक पटखनी देनी होती है, इसे प्रभावी बनाने के लिए.. इस स्तर पर रवीश कई बार चूके.. कुछ लप्रेक बिल्कुल फ्लैट लगे.. पर वहीं कुछ, खच्चाक से दिल के पार हो गए और मैं, मंत्रमुग्ध सी इश्क़ में शहर को एन्जॉय करती रही…
कुल मिलाकर एक इंटरेस्टिंग कॉन्सेप्ट है ये किताब.. और, हां, वो अंग्रेज़ी में कहते हैं न, लास्ट बट नॉट द लीस्ट, “इश्क़ में शहर होना” की बात, बिना विक्रम नायक को सैल्यूट किए पूरी नहीं हो सकती..
हर लप्रेक के साथ उनका एक रेखाचित्र अपनी ही कहानी गढ़ता रहा… कई बार फोन को घुमाफिरा कर उनके चित्रों का मिलान लघुकथा से करती रही.. आखिर फैन तो शब्द और रंग दोनों की हूं… और फिर क्रिटिक की आत्मा, कमियां निकालने को तो फड़फड़ाती ही है 😉
वैसे आपके लिए भी एक पसंदीदा लप्रेक और एक प्रभावी रेखाचित्र का स्क्रीन शॉट लगा रही हूं.. आखिर, इश्क़ विश्क की बातें खुद ही तो समझनी पड़ती हैं.. कुल मिलाकर, सफर मज़ेदार रहा…Anupama Sarkar
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