हम सब अपनी अपनी परिधि में सिमटे हुए ज़िंदगी को देखा समझा करते हैं.. कभी हालात ज़रा सा बदलें तो हालत ख़राब होने लगती है.. बड़ा मुश्किल हो जाता है, किसी और के नज़रिए से देख पाना, समझ पाना हालांकि हमें मौके भरपूर मिला करते हैं.. इतवार को 12 घंटे की ड्यूटी करते हुए, गरमी, उमस झेलते हुए और बेहद अनकंफर्टेबल कुर्सी पर सारा दिन कमर तोड़ते हुए, बहुत वक़्त मिला कल, इस बारे में सोचने के लिए..
जो काम मेरे लिए कभी कभार की मजबूरी बना हुआ है, वो बहुतों के लिए जीवनयापन का तरीका है.. हमारे देश में अब ऑनलाइन एग्जाम होने लगे हैं.. काग़ज़ पेंसिल नहीं सीधा कम्प्यूटर पर अपनी प्रतिभा का परिचय देना, नया शगल ज़रूर है.. पर इसने आश्चर्य चकित रूप से, देश के रोज़गार को भी नया मोड़ दिया है..
बात एग्जाम देने वालों की नहीं, बल्कि वहां मौजूद प्राइवेट इन्विजिलेटर्स की कर रही हूं.. बमुश्किल 20-22 साल के लड़के लड़कियां, जो रोज़ किसी न किसी ऐसे ही ऑनलाइन exam के दौरान, वही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो किसी ज़माने में अनुशासन प्रिय शिक्षकों की हुआ करती थी.. शायद खुद पढ़ाई करते हुए, ये लड़के लड़कियां उन्हीं शिक्षकों से डर में रहा करते होंगें.. पर ज़िंदगी एकदम से 360 डिग्री के टर्न पर, इन्हें वहीं खड़ा कर गई है
हालांकि पैसे बहुत कम मिलते हैं उन्हें, पर फिर भी रोज़गार का एक ऐसा अवसर मिल रहा है, जो शायद कुछ सालों पहले हमने सोचा भी नहीं था। शाम होते होते मैं उनमें से कुछ से बात करते हुए ये समझने की जुगत में थी कि रोज ऐसी ड्यूटी करती हो, तो घर कैसे संभालती हो.. जवाब सीधा सरल था, आदत हो चली है, हालांकि इतनी लंबी duty नहीं होती, बाकी कंपनीज़ तो दो शिफ्ट ही करवाती हैं, पर फिर भी, सुविधाओं की कमी, 250 कम्प्यूटर होते हुए भी लैब में सिर्फ पंखे होना, खिड़कियों को सुरक्षा की दृष्टि से सील किए रखना और वेंटिलेशन का कोई और इंतजाम न होना, उन्हें भी खलता बहुत है पर कुछ पैसों की चाहत में सब दब जाता है..
अहसास हुआ कि घर जाकर भी इन्हें कोई खास सुविधाएं नहीं मिलने वाली, बस चक्की में पिसे जाना है.. हमने औरतों के लिए रोज़गार के नाम पर तरक्की ज़रूर की है, पर समाज में, परिवार में उनके लिए कोई ख़ास परिवर्तन नहीं.. कभी कभी लगता है दोहरी मार झेल रही हैं आज की कामकाजी महिलाएं..
ख़ैर एक लंबे दिन ने ख़तम होते होते भी, परेशानियों से पीछा नहीं छुड़वाया था.. 12 घंटे की ड्यूटी के बाद, 10 मिनट का मेट्रो तक मार्च, कीचड़, गारे, नाले को पार करते हुए अभी बाकी था.. कारण वो रात भर की बारिश, जिसने ओवर फ्लोइंग सीवर सिस्टम की बांध तोड़ रखी थी.. सड़कों पर लगा हुआ लंबा जाम, मुझे कैब की बजाय मेट्रो से जाने के लिए भरमा रहा था, तो फिसलते पांव देख देख, दिमाग गुस्से में बडबडा रहा था.. सच मानिए, उस 10 मिनट की वॉक के बाद मुझे मेट्रो की escalator, स्वर्ग का आनन्द देती लगी..
पर फिर एक बार, थके हारे चेहरों वाले अपार जनसमूह का हिस्सा बनते हुए कहीं एक कसक उठी, कि ये भीड़ भी कहीं न कहीं मज़दूरी करके लौटते हुए लोगों की ही है.. विकास के साथ साथ, ऊपरी तौर पर टेक्निकली हम एडवांस हो चले हैं, पर अंदर से शायद खोखले हुए जा रहे हैं.. इस पूरे दिन में एक बार भी, मुझे वो बहकती महकती हवा, महसूस न हुई, जिसने कल दिल्ली के मौसम को खुशगवार बना रखा था.. बस पूरा वक़्त थकान के बोझ तले zomby सरीखी जीती रही..
पर प्रकृति तो ठहरी मनचली, मेट्रो की ग्रीन लाईन से ब्लू लाइन तक, ओपन walkway का इस्तेमाल करते हुए, मखमली आसमां ने अपनी तरफ खींच ही लिया.. चाल धीमी करके, उस आकाश को तकती रही.. मोबाइल निकाल कर फोटो लेना मुश्किल लग रहा था, फिर सोचा, छोड़ो परे कैमरा, आंखों और दिल में भर लूं इस नज़ारे को, तो भी क्या बुरा.. जीने की हिम्मत दे रहा है मुझे..
कुछ पल बाद, फिर एक बार मेरे सामने उदास निर्विकार चेहरे घूम रहे थे, जिनका हिस्सा मैं भी थी.. घर लौट कर लगा, जैसे एक मुखौटा चढ़ा है मुझ पर.. कितनी खीझ, थकन और खालीपन.. और फिर अचानक महसूस हुआ कि ऐसे में परिवार के सपोर्ट की कितनी ज़रूरत.. मशीनों के बीच आप मशीन बने रह सकते हैं पर घर पर भी उसी मोड में जीना किस क़दर तोड़ देता होगा.. और मेरी नज़रों के सामने फिर वही एग्जामिनेशन हॉल में बैठी लड़की घूम रही थी, जिसका साल भर का बच्चा, घर में इंतजार कर रहा है, उसके मशीन से मां बन जाने का..
सच ज़िंदगी कई चेहरे लिए बैठी है, बस बात नज़र और नज़रिए की है.. फिलहाल एक लंबे दिन के बाद थकी थकी मैं, शब्दों में सुकून तलाशती हुई.. अनुपमा सरकार
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