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How relevant is Gandhi?

2 अक्तूबर आते आते गांधी पर चर्चा ज़ोर पकड़ने लगती है.. हर साल लगता है गांधी थोड़े और अप्रसांगिक हुए… और हर बार उनके विचारों से हम थोड़ा और दूर चले आए हैं.. शायद कुछ सालों में उनका नाम और तस्वीर आम जनता के दिल दिमाग से मिटा भी दिया जाए, आखिर वक़्त ही कितना लगता है, भूल जाने में, आउट ऑफ साइट आउट ऑफ माइंड हो ही जाते हैं…

पर जानते हैं, ये नया फेनोमना नहीं, मैं भी बचपन से “कोई एक गाल पर मेरे, तो दूसरा भी आगे कर देना” जैसी बातों की सुनकर, उनको उसी तरह कमज़ोर और काग़ज़ का शेर समझती धी, जिस तरह आप समझते हैं.. शायद चौथी क्लास में पढ़ती थी, जब 15 अगस्त के कार्यक्रम में मुझे आजादी के लिए संघर्ष करने वाले का चरित्र निभाना था.. सुभाष चन्द्र बोस बनने का मन था मेरा.. पर मेरी टीचर की सजेशन थी कि चूंकि मेरे पापा बंगाली हैं और धोती बांधना जानते ही होंगे, मुझे किसी ऐसे ही किरदार को चुनना चाहिए.. गांधी ही थे सबके दिमाग में, घर से लेकर स्कूल तक.. पर न, मैं ज़िद पर अडी थी, मुझे नहीं बनना गांधी, सिर पर बाल नहीं, हाथ में डंडा और आधी धोती, मैं नहीं बनूंगी.. बालमन हठ कुछ ऐसे ही करता है.. खूब सोच विचार हुआ, और पापा ने कहा, तू खुदीराम बोस बनकर जा.. वो 16 साल में अंग्रेजों के बीच बॉम्ब मार आया था..

ये पहली बार था जब मैंने ये कहानी सुनी थी.. बहुत इंप्रेस हुई, यही बनूंगी.. चाचा ने एकला चालो रटवाया, और मैं धोती वाला बोस बनकर, माईक पर टूटा फूटा गाकर, प्राइज लेकर भी लौटी.. पर उस दिन साथ ही एक और बीज मेरे अंदर समा गया था… गांधी को कायर और खुदीराम को बहादुर मानने का..

2 अक्टूबर को अक्सर गांधी मूवी टीवी पर आती और मैं उस में अहिंसा के नाम पर, लोगों को पिटता और गांधी को चुप बैठे देख रोष से भर जाती… स्कूल, कॉलेज में बाकी साथी भी कुछ ऐसा ही कहते समझते, और मैं अपने निश्चय पर दृढ़, कि बेमतलब चढ़ा रखा है गांधी को… हालांकि इस बात से इंकार नहीं कर पाती थी, कि उसने लोगों को स्वराज के लिए मरने मिटने को तैयार तो कर ही लिया था, वो भी उस वक़्त जब देश जैसी कोई भावना थी ही नहीं.. पर फिर भी उनसे कोई खास इंप्रेस नहीं थी..

और फिर 2011 में पढ़ी गांधी के बारे में एक किताब.. Mahatma vs Gandhi by Dinkar Joshi.. उस किताब में हीरो नहीं बल्कि अल्मोस्ट विलेन के रूप में थे गांधी.. ये पुस्तक उनके बड़े बेटे हरिलाल गांधी के जीवन पर आधारित थी… वो लड़का जो पिता के आश्रम को मिलने वाली स्कॉलरशिप से बैरिस्टर बनना चाहता था, पर गांधी के आदर्शों के चक्कर में बन नहीं पाया.. वो हरिलाल जो अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़, पैसे और नाम कमाने के लिए, गलत हथकंडों को अपनाने से भी गुरेज नहीं रखता था… मुस्लिम लीग के बहकावे में आकर मुसलमान हो गया था, पिता के खिलाफ रोष प्रकट करते हुए, गांधी के सामने चुनौती बनकर खड़ा हुआ था.. और जिसने जीवन में कुछ भी पाया नहीं, बस खोता चला गया…

आप सोच रहे होंगे कि ये किताब तो सचमुच गांधी को गलत साबित करने में सफल हो ही गई, वे पिता के रूप में फेल हुए थे, राजनीतिज्ञ के रूप में कमज़ोर साबित.. रिव्यू लिखते हुए भी मैं कन्फ्यूज्ड ही थी.. मन हरिलाल से सिंप्थी महसूस कर रहा था, पर जानता था कि अपनी ज़्यादातर मुसीबतों का कारण, हरिलाल में विल पॉवर की कमी ही है.. उधर उनके पिता गांधी में विल पॉवर कूट कूट कर भरी थी..

ये किताब पढ़ने के बाद, मन में फुसफुसाहट शुरू हुई कि गांधी आदर्श के पक्के थे, किसी टेम्पटेशन, किसी मज़बूरी में समझौता न करने में समर्थ.. अब तक महसूस करने लगी थी कि विरोध, केवल हाथ पांव चलाकर नहीं, बल्कि धीमे धीमे अपने नियत पथ पर चलते रहना होता है.. सबसे मुश्किल है, दूसरों के द्वारा नकारे जाने पर भी अपनी सोच, समझ, values पर विश्वास बनाए रखना… यहां मुझे गांधी वही करते दिखे.. अपने बेटे, पत्नी, साथियों के सामने न झुकते हुए, और शायद यही कारण था कि वो अंग्रेजों के सामने भी उसी विश्वास से खड़े रहे, मन मज़बूत किए.. जीवन अजब है, आप बहुत आसानी से दूसरों के बनाए रास्तों को फॉलो करते हुए, जी सकते हैं.. पर अपने लिए रास्ता चुनना और उस पर चलते रहना, बिना दूसरों को अपनी प्रतिस्थियों के लिए ब्लेम करते हुए आसन नहीं…

और फिर साल भर बाद पढ़ी My Experiments with Truth… गांधी की आत्मकथा तो ये नाम भर को ही है, पर हां, गांधी का खुद के जीवन को लेकर इतनी ओपनली बात करना, वो भी तब जब वे शीर्ष पर थे, उनके ईमानदार व्यक्तित्व की गवाही दे गया.. इस पुस्तक को पड़ने के बाद गांधी का एक और पक्ष उजागर हुआ.. contrary to popular belief, वो एक उम्दा पॉलिटीशियन थे.. चरखा और खादी को उन्होंने सिंबल की तरह उपयोग किया था.. घर घर तक राष्ट्रवाद और आज़ादी की भावना पहुंचाने के लिए, नितांत ज़रूरी था उस वक़्त की जनता को ये एहसास होना, कि अंग्रेजों की नौकरी या उनकी सरपरस्ती के बगैर भी उनका अपना अस्तित्व है.. कुछ ऐसा जिस से वे सिर उठाकर अपने लिए जीविका कमा सकते हैं.. नमक बनाना, सिर्फ अंगेजों को ही नहीं, बल्कि आम जनता को भी विरोध का पहला पाठ सिखाना और आज़ादी का स्वाद चखाना था..

आप आज महसूस रहे होंगें कि गांधी irrelevant हैं, पर यकीन मानिए उन्हें relevant और acceptable तो उनके अपने ज़माने में भी किसी ने नहीं माना था.. कुछ अलग कहना, करना, खलता ही है.. आज के दिन को हम सब छुट्टी की तरह मनाएं या कुछ सालों में आम दिनों की तरह ही काम करते हुए, गांधी का जन्मदिन भूल भी जाएं.. कोई फ़र्क नहीं पड़ता, गांधी एक विचार रूप में, जीवन के किसी न किसी मोड़ पर, किसी रूप में आपसे भी मिलेंगे, जैसे मुझसे टकराए…
Anupama Sarkar
#GandhiJayanti

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