Kuch Panne

होली : फागुन का चांद

धीमे-धीमे गहराती शाम। थका-मांदा सूरज दिन भर की चमक-दमक के बाद अपनी आभा खुद में समेटे,अपनी प्रेयसी संध्या के कांधे पर हाथ डाले आकाश रथ से क्षितिज की ओर अग्रसर हो चला है। होली का दिन था न आज, मस्ती भरा। इंद्रधनुषी थी उसकी सुबह, लाल-पीले-नीले-जामुनी रंगों में चहकती सी। ढोल की थाप पर नाचते बच्चे, होली के हुड़दंग में बहकते मुहल्ले। मुझे चाहे बदलते परिवेश में बीते ज़माने का, आधुनिक होता ये त्योहार बहुत प्रफुल्लित न कर पाता हो पर सजी तो थी दुनिया आज, गुलाल-अबीर की महकती सांसों से।

पर, एक बात मुझे कभी समझ आई नहीं। इन रंगों से प्यार बस एक दिन ही क्यों? वो उगता-डूबता सूरज, खिलता-झड़ता सेमल, शिवली की मनमोहक सुगंध, गेंदे की पीलगी, तितली-भंवरों की रंगबिरंगी अठखेलियां तो सदा ही उत्साहित करती हैं न मन को। रोज़ वही चित्रकारी, वही किरदार, वही रस्म ओ रिवाज़, पर फिर भी हर सुबह नई नवेली दुल्हन सी शर्मीली, हर शाम पिया के रंग में पगी अल्हड़ युवती सी लगे है मुझे।

और ये फागुन का चांद, इसकी मस्त अदाओं का तो कहना ही क्या। कल तक दुबका पड़ा था, बदलियों में, मटमैला सा। पर आज चमक रहा है, निखरे चांदी के टुकड़े सा। मन करे, पायलिया गढ़वा लूं इसकी, छनकाती झूमूं हर घड़ी। कंगन में खनका लूं, बूंदों में बंधवा लूं इसे। शरारती मन मोहे है, किनमिनाते सप्तरिषी, अविचलित ध्रुव को भी अपनी टेढ़ी मुस्कान से सम्मोहित करता। पर दूसरे ही पल तटस्थ योगी सा दिखता है, चुप्पी साधे पूरब से पश्चिम की यात्रा पूरी करता।

नज़र भर देख लूं तो जाने क्या मंत्र फूंक देता है ये चांद मुझ पर। मन करे, रंग दूं इसके गालों को टेसू की अगन से, शर्माई का लाल छूटे न महीनों तक या हल्दी-चंदन का तिलक कर दूं इसके सलोने माथे पर। केसरिया बांका, ताव दिए घूमे मूंछों पर।

पर भाए तो बस ये मुझे यूं ही, बेरंगा, झक्क सफेद, पारदर्शी न सही पर अंदर-बाहर एक सा। निर्विकार भाव से लहरें आंदोलित करता, रेत पर शीशे सा चमकता, झील में मुस्कान बिखेरता। हौले से मेरे आंगन में रोशनी कर, सामने की बाल्कनी के पीछे छिपता जाता। होली हो या दीवाली, मेरे संगी साथी तो बस यही, न रंग बदलें न रूप, जिस के तिस हर घड़ी।

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