Review

हिन्दी मीडियम

इरफान खान की हर मूवी देखने से पहले ही ये इत्मीनान मन में लिए चलती हूं कि कहानी अच्छी न भी हुई तो भी कम से कम एक character तो जानदार रहेगा ही.. उनकी लास्ट मूवी शायद लंचबॉक्स देखी थी और उस से कुछ समय पहले मदारी… हर बार ये साधारण सा दिखने वाला शख्स, आम आदमी के गेटअप में कुछ अलग ही छाप छोड़ जाता है….

पर आज हिन्दी मीडियम देखते हुए इरफान से मुझे सुकून नहीं मिला, शायद मेरी उम्मीदें कहीं ज़्यादा थीं.. बहरहाल अंग्रेजियत के पीछे दम फुलाकर भागते न्यू जनरेशन के माता पिता को लाइमलाइट में लाने की ये अलग सी कोशिश मुझे ज़रा कन्फ्यूज़ कर गई… बच्चों का एडमिशन स्टेटस सिंबल है और इसके लिए मां बाप द्वारा की गई पुरजोर कोशिश, यहां तक कि EWS कोटे तक में हाथ फैलाकर शामिल हो जाना, आज का सच है… और इस पर मूवी बनाने की हिम्मत करना, वाक़ई एक ज़रूरी कदम…

कहानी दमदार है, विषय भी सामयिक पर फिर भी ये फिल्म उतनी मजबूत नहीं.. अमीरों के सामने इन्फ्रियोरीटी कॉम्प्लेक्स का होना,एडमिशन के लिए किसी भी हद तक गिर जाना, गरीब होने का नाटक करना, छोटी सी बस्ती में सबसे अच्छे लोगों से मुलाक़ात होना और बाद में किसी के हक मार लेने का गिल्ट… वाक़ई इंप्रेसिव है ये सब, और एक सफल मूवी के लिए ज़रूरी अतिवाद से लैस भी… पर किसी हद तक नाटकीय और कई बार भुनाया जा चुका मसाला भी है ये…

शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को ऊपर ऊपर से सिर्फ छुआ गया, अंदर तक ढाला नहीं गया.. मेरा मानना है कि गहरे ज़ख्म छेड़े जाएं तो बेदर्दी से साफ करने पड़ते हैं वरना पीब मवाद केवल दिखता है, हटता नहीं..

और मुझे हिन्दी मीडियम एक ऐसी ही कोशिश लगी.. प्रेरणा देने और लोगों से कनेक्ट होने के लिए आतुर एक pseudo art film…

शायद डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर दोनों ही ग्राउंड रिएलिटी से वाक़िफ नहीं या फिर इतना अध्ययन नहीं कर पाए जितना कि इस तरह की मूविज़ बनाने में चाहिए होता है.. सरकारी स्कूलों को अनुदान देकर चमकाने की बात गले से कोई खास उतरी नहीं और न ही हजम हुआ बतरा परिवार का चांदनी चौक की दुकान से पोश कॉलोनी, फिर भारत नगर और उसके बाद स्क्रिप्टेड स्पीच के साथ सरकारी स्कूल में अपने बच्चे का एडमिशन कराना…

हैरत की बात है कि मूवी बिल्कुल सही दिशा में चलते हुए भी दिल को नहीं छूती.. मुझे ये सिर्फ वातानुकूलित कमरों में बैठकर गरीब को बचाओ के नारे जैसा ही लगा.. कन्विंसिंग नहीं बल्कि हाबड़ तोड़ में उठाया कोई कदम..

इस कहानी में संभावनाएं बहुत हैं और इरफान का टैलेंट इस से कहीं ज़्यादा.. दोनों को ही ठीक से भुनाया जाता तो मैं इस मूवी को कई बार देखती.. विषय व प्रेरणा उत्तम पर रुपहले पर्दे पर देखने के बाद ये फिल्म सोचने पर मजबूर हर्गिज नहीं करती.. मायूस हुई 🙁
Anupama

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