कुछ समय पहले National Museum गई थी… वहां हाथी दांत (Ivory) की बनी चीज़ों का अच्छा खासा कलेक्शन दिखा.. एक पूरा कमरा, सिर्फ और सिर्फ हाथी दांत से बनी कलाकृतियों को समर्पित… ज्वैलरी बॉक्स, पादुका, छोटी छोटी मूर्तियों से लेकर मन्दिर और सिंहासन के पाये तक… उन पर की हुई नक्काशी मन मोह रही थी… कला कौशल देखकर स्तब्ध थी पर कहीं एक टीस भी महसूस हो रही थी… ये सब हमारे लिए डेकोरेटिव आइटम्स पर रॉ मटेरियल यानी कि हाथी दांत हथियाने के लिए न जाने कितनों की जान ली गई होगी..
मन कुछ भारी हुआ.. फिर एक सवाल दिमाग में चरमराया कि आखिर ये हाथी दांत होते क्या हैं.. क्यों हुए इतने प्रसिद्ध कि हाथियों की जान ही चली जाए.. मालूम हुआ कि ये overgrown incisors यानी कि मुंह के बीच वाले चौढ़े दांतों का बढ़ा हुआ हिस्सा हैं…इंडियन मेल एलीफैंट में इन्हें tusks कहा जाता है और फीमेल में tushes..
हालांकि संरचना में ये आम दांत से कहीं सघन होता है, enamel की लेयर उतनी ठोस नहीं जितनी कि बाकी जानवरों के tusks में होती है, और शायद इसलिए औरों की बनिस्बत हाथी दांत कहीं ज़्यादा इस्तेमाल हुआ… अब चूंकि है तो दांत ही, सो इसका एक तिहाई हिस्सा खून, नसों और सेंसिटिव टिश्यूज़ से बना है और सिर के अंदर रहता है.. इसलिए शायद बिना मारे हाथी दांत निकाला नहीं जा सकता और इसे हथियाने के चक्कर में जाने कितने ही हाथियों को बेरहमी से मारा गया…
भारतीय हाथियों के लिए एक अच्छी बात ये रही कि मादा में ये tusks नहीं पाई जाती, इसलिए ज़्यादातर जगह उनका शिकार नहीं हुआ.. पर हां, नर हाथियों ने इनका खामियाजा खूब भुगता..
कहते हैं, जंगली हाथियों के दांत कभी बढ़ने बन्द नहीं होते और अमूमन 6 इंच हर साल बढ़ जाते हैं.. ज़्यादातर इनका इस्तेमाल वो छाल उखाड़ने, दूसरे जानवरों से अपनी रक्षा करने और सामान उठाने के लिए करते हैं.. पर ये प्राकृतिक सुरक्षा कवच उनके लिए आफत की पुड़िया बन गया…. चूंकि हाथीदांत आसानी से घिसा जा सकता है, और बावजूद इसके बहुत मजबूत होता है, ये नक्काशी के लिए उपयुक्त साधन साबित हुआ… यहां तक कि पियानो की white keys भी सालों तक इसी से बनाई जाती रहीं.. पसीना लगने पर भी इनमें चिकनाहट न आने की वजह से पियानो प्लेयर घंटों बिना हाथ फिसले, पियानो बजा पाते थे.. 1980 के बाद एक पॉलिमर विकसित किया गया, जो लगभग हाथी दांत जैसा ही है, और अब हाथी दांत का इस्तेमाल पूरी तरह बन्द हुआ…
ये सब पढ़ने के बाद हल्का सा सुकून मिला…. और फिर एक नयी बात पढ़ी कि अब हाथियों में प्राकृतिक रूप से वो genes खत्म होते जा रहे हैं जो उनके दांतों को ये लुभावना रूप देते थे.. इसे हम नेचुरल सेलक्शन और इवोल्यूशन का नाम दे सकते हैं, पर इसमें इंसान की मूर्खतापूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता.. काश! हम प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य की ओर थोड़े सभ्य और उदार रह पाते… वरना प्रकृति खुद को संभालना और समय के साथ बदलना बखूबी जानती है.. शायद हम ही पीछे छूट जाएं!
Anupama Sarkar
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