Hindi Poetry

ज्ञानी

ज्ञानी, ध्यानी, अभिमानी
कितने स्वरूप हैं इस मन के
कभी आध्यात्म पक्ष मुखर हो उठता
हर बात में कारण टटोलता

कभी डूब जाता अथाह सागर में
गोते लगा नित नये मोती खोजता
अवलोकन की सतर्क क्रिया से अनजाने ही
मूल्यांकन की प्रक्रिया में विलीन हो जाता

ज्ञान, ध्यान खो जाते मान की जटाओं में
भटकने लगते विचार संकरी कंदराओं में
अपना औचित्य भूल ढलने लगते
दुर्गंधित प्रतिक्रियाओं में

पतित हो उठते सकारात्मक घटक
क्रोध की अग्नि में भस्म पंचतत्व !!
Anupama

Gyaani poem

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