लगभग 18 साल पहले एक नाटक पढ़ा था “तुगलक”..
एम ए इंग्लिश कोर्स का हिस्सा था.. पोस्ट ग्रेजुएशन कर ही इसलिए रही थी ताकि इस विज्ञान के विद्यार्थी रहे दिमाग का साहित्य से परिचय हो पाए.. कमला दास, nissim ezekiel, मुल्क राज आंनद और गिरीश कर्नाड.. मेरे लिए ये सब नाम अनजाने थे, पर फिर भी अपने क्योंकि सब भारतीय थे, इंग्लिश में लिखने कहने समझाने वाले..
हालांकि कर्नाड इकलौते थे, जिन्हें चेहरे से जानती थी.. नाटक पढ़ते हुए उनका चेहरा भी नज़रों के सामने घूमता रहा था.. आखिर वो मेरे लिए पहले एक प्रसिद्ध अभिनेता थे बाद में साहित्यकार.. मालगुडी में स्वामी के अनुशासन पसंद कठोर पिता की भूमिका निभाते गिरीश जी की छवि मेरे बाल मन पर यूं छपी थी, कि तुगलक के शुरुआती पन्नों में मैं उनका वही रूप ढूंढती रही..
पर नहीं, मेरे हाथ में जो किताब थी, वो एक परिपक्व नाटककार की कृति थी, जो बहुत ही आसानी से पाठक को सदियों पुराने भारत में ले जाने में सक्षम थे.. जो पुरजोर तरीके से तब के तानाशाह तुगलक को जनता की नज़र से दिखा सकते थे और वहीं “पागल बादशाह” के मन के कोने भी भेद सकते थे.. धर्म और अर्थ के कई लुके छिपे पहलू स्वत ही मेरे मन में घर कर गए थे, और तब से आज तक मैं राजनैतिक और सामाजिक परिवेश को समझते हुए कहीं न कहीं इस नाटक से प्रभावित हो जाती हूं..
तुगलक पढ़ने के बाद गिरीश कर्नाड के मायने मेरे लिए बदल गए.. वे एक सशक्त विचारक के रूप में दिल में पैठ गए थे.. अभी पढ़ा कि आज सुबह सुबह उनकी मृत्यु हो गई.. 81 वर्ष के कर्नाड.. पद्मश्री, पद्म भूषण और ज्ञानपीठ द्वारा पुरस्कृत गिरीश जी हमारे बीच अब नहीं रहे.. पर उनकी निभाई भूमिकाएं, अभिनेता, विचारक और साहित्यकार के रूप में हमेशा हमारे साथ रहेंगी.. जियो तो बस ऐसे ही.. नमन.. अनुपमा सरकार
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